संत गहिरा गुरू
आदिवासी समाज सुधारकों में गहिरा गुरु का नाम सम्मान से लिया जाता है। हालांकि हम यह मानते हैं कि बहुत कम लोगों ने इनके बारे में सुना होगा। ऐतिहासिक खींचतान या फिर प्रसिद्धि के आडंबर में, ऐसे अनेक लोग छूट जाते हैं, जो असल में कर्मयोगी रहे हैं। हमारा प्रयास है कि ऐसे सभी श्रेष्ठ कर्मयोगियों के जीवन दर्शन को पाठकों के समक्ष रखा जाना चाहिए।
छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के सन्त गहिरा गुरुने , सरगुजा जिले के आसपास के वनवासी क्षेत्रों में बहुत कार्य किया।
इनका प्रारंभिक नाम रामेश्वर कंवर था.. रायगढ़ जिले के लैलूंगा विकास खंड के ग्राम गहिरा में रामेश्वर कंवर जी का जन्म हुआ। बाद में रामेश्वर जी ‘गहिरा गुरु’ के नाम से ही प्रसिद्ध हुए। गहिरा गुरु का जन्म 1905 में श्रावणी अमावस्या को हुआ था। इनके पिता का नाम बुदकी कंवर और माता सुमित्रा थीं। उस क्षेत्र में पढ़ाई लिखाई से सम्बन्धित कोई व्यवस्था नहीं थी। कोई भी बच्चा पढ़ता नहीं था। यही स्थिति रामेश्वर की भी थी। उनके घर में लाल कपड़े में लिपटी एक रामचरितमानस रखी थी। जब भी कोई साधु-संन्यासी आते, तो रामचरितमानस पढ़कर सुनाते थे। इससे रामेश्वर के मन में धर्म को और अधिक जानने की भावना जाग्रत हुई।
उस आदिवासी क्षेत्र में मद्यपान और मांसाहार जीवन के साथ बहुत सूक्ष्म रूप से जुड़ा हुआ था। रहन – सहन और साफ़ सफाई को लेकर भी कोई सजगता नहीं थी। 8 से 10 वर्ष तक के बच्चे लगभग बिना कपड़ों के ही रहते थे। पुरुष लंगोटी और महिलाएं कमर से नीचे आधी धोती पहनती थीं। नहाना-धोना तो दूर, शौच के बाद पानी के प्रयोग की भी प्रथा नहीं थी।रामेश्वर इन सब चीज़ों से दूर जंगल में , एकांत में बैठकर चिंतन-मनन किया करते थे। साधना में उनकी रुचि बढ़ती जा रही थी। उन्होंने लोगों को स्वच्छता की आवश्यकता के प्रति सजग करने का प्रयास किया। साथ ही प्रतिदिन नहाने, घर में तुलसी लगाने, उसे पानी देने, श्वेत वस्त्र पहनने, गांजा, मांसाहार एवं मदिरा का त्याग करने, गौ सेवा एवं खेती के साथ , रामचरितमानस की चौपाई पढ़ने हेतु प्रेरित किया।
प्रारम्भ में यह बिलकुल आसन नहीं था, क्योंकि लोग बहुत समय से एक ही प्रकार की दिनचर्या का पालन कर रहे थे और जीवन की गुणवत्ता को समझने में किसी का कोई ध्यान नहीं था। धीरे-धीरे लोग उनकी बात समझने लगे , और रामेश्वर कंवर जी उनके बीच ‘गहिरा गुरु’ के नाम से कहलाए जाने लगे। उनका एक सूत्र वाक्य था, जिसे वो अक्सर कहा करते थे -“चोरी दारी हत्या मिथ्या त्यागें, सत्य अहिंसा दया क्षमा धारें..” विवाह के बाद भी, इनके कार्यों में कोई रुकावट नहीं आई बल्कि समय के साथ – साथ, यह और तीव्र गति से अपने उद्देश्यों के प्रति सजग होते जा रहे थे।
1943 में उन्होने “सनातन धर्म सन्त समाज” की स्थापना की। इन्होंने वनवासियों के बीच बलि प्रथा छोड़ने और वैदिक पूजा पद्धति को अपनाने पर बल दिया। उत्तरी छत्तीसगढ़ के अविभाजित सरगुजा , जशपुर, रायगढ़ सहित पड़ोसी राज्य झारखण्ड, उत्तरप्रदेश से लगे क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों के साथ अन्य समाज में सामाजिक चेतना और जागरूकता लाने में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा।शिक्षा और संस्कारों के प्रचार के लिए गहिरा गुरूजी ने सुदूर आदिवासी क्षेत्रों में संस्कृत पाठशालायें , आश्रम , विद्यालय तथा संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की।
गहिरा गुरु जी और इनकी संस्था “सनातन संत समाज” के सेवा कार्यों से प्रभावित होकर शासन द्वारा इन्हें “राष्ट्रीय ईंदिरा गांधी समाज सेवा पुरस्कार“ , “बिरसा मुण्डा आदिवासी सेवा पुरस्कार“ एवं “शहीद बीर नारायण सिंह पुरस्कार“ प्रदान किया गया। छत्तीसगढ़ सरकार इनकी स्मृति में ” गहिरा गुरू पर्यावरण पुरस्कार ” स्थापित किया गया।गहिरा गुरु ने उरांव जाति के लोगों से कहा कि वो पिछड़े नहीं है , बल्कि महाबली भीम के बेटे घटोत्कच के वंशज हैं। उन्हें सही जीवन पद्धति को अपनाना चाहिए तथा आंतरिक विकास पर बल देना चाहिए।गहिरा गुरु एक तपस्वी थे और कठोर साधक थे..गहिरा गुरु के कार्यक्षेत्र रहे गहिरा ग्राम, सामरबार, कैलाश गुफा तथा श्रीकोट कालांतर में एक तीर्थ के रूप में विकसित हो गये। बहुत से विद्वान एवं तपस्वियों का वहां आगमन होने लगा।
कर्मयोगी रहते हुए ही , देवोत्थान एकादशी के पवित्र दिवस 21 नवंबर 1996 को गहिरा गुरुजी ने देह त्याग किया।छत्तीसगढ़ सरकार ने 2016 में सरगुजा विश्वविद्यालय का नाम बदलकर “सन्त गहिरा गुरु विश्वविद्यालय” कर दिया है।