कहानियों का अस्तित्व , इस विश्व के होने के साथ ही सामने आ गया। ऐसा नहीं है कि भाषा के विकास के बाद ही कहानियों ने अपनी भूमिका बनाना आरंभ किया। भाषा नहीं थी तब भी कहानियों को कहने के लिए कई माध्यम निकाल लिए गए, चित्रों का सहारा लिया गया, चट्टानों पर चित्र उकेरे गए। पत्थरों को ऐसे तराशा गया जो किसी कहानी की तरह हों। देखा जाए तो, कहानियां और उनका स्वरुप किसी बच्चे के जन्म के साथ ही उसके अस्तित्व का सबसे गहरा हिस्सा बन जाता है।
कहानियों ने अपने आपको हर छोर से विस्तारित किया, आज देखा जाए तो इस विश्व की कहानी से जो प्रक्रिया प्रारंभ हुई, उसने कहानियों में ही कई कहानियों को भी जन्म दिया। कुछ कच्ची कहानियां रहीं और कुछ पक्की कहानियां..यह बिलकुल वैसा है, जैसे एक नाटक लिखा जाता है और उसमें अलग -अलग चरित्र होते हैं आपस में बंधे हुए।
लेकिन ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि, नाटक के उन चरित्रों के पास भी अपनी कहानियों का अंबार लगा हुआ है, जिसमें वो अपना जीवन देखते हैं। नाटक तो केवल किसी छोटे से पड़ाव या किस्से की तरह है, जिसमें सब घुला – मिला एक छोर से टकराता हुआ आता जाता है।
ऐसे ही मनोविज्ञान का अध्य्यन करने वाले, जानें कितनी ही कहानियों को आधार बनाकर , अपने सिद्धातों को स्वरुप देते हैं। एक बड़ी सुंदर कहानी ग्रीक सभ्यताओं में देखी जाती है। जिसमें मानसिक विक्षिप्तता के संदर्भ में व्यक्तियों को समाज द्वारा निर्धारित पवित्र स्थानों पर कुछ दिन तक रखा जाता था और यह माना जाता था कि देवता उनके स्वास्थ्य की रखवाली करेंगे।
इतिहास की कहानी, संस्कृति की कहानी, प्रेम की कहानी, सभ्यताओं की कहानी, सिद्धांतों की कहानी, ज्ञान की कहानी, विज्ञान की कहानी, भाषा की भी कहानी.. उपरोक्त सभी बातें कहानियों में घुली हुई कहानियों को भी बताती हैं।
कहानियों को कभी सत्य नहीं माना जाता, कहानी शब्द एक भ्रमित स्थिति को पकड़े रखता है। जिसमें बहुत कुछ मिला जुलाकर सामने परोसा जा रहा है। पर मेरा व्यक्तिगत मानना है कि अगर थोड़ा ध्यान केंद्रित किया जाए तो ज्ञात होगा। हर छोटी से छोटी चीज़ कहानी का एक रुप है और यथार्थ उन्हीं कहानियों के बीच कहीं सांस लेते हुए महसूस होता है..!
“मानव सभ्यता कहानियों के बीच पनपी है, और कहानियां इनके अस्तित्व को एक आधार देती हैं, इसलिए कहानियों को इनसे अलग नहीं देखा जा सकता..।”
शिविका🌿