काली की मुंडमाला, तांत्रिकों की दृष्टि में!
सृष्टि कभी भी ज्ञान-मूल वेद अथवा उसके शिक्षकों से रहित नहीं रही। उसके संप्रेषण के स्तर और विधि में अवश्य उसे ग्रहण करने वाले व्यक्तियों की योग्यता अनुसार अंतर रहा है। यही अंतर उन प्रतीकों में रहा है, जिनके माध्यम से ज्ञान का संप्रेषण किया गया है। इसी प्रकार उपासक के आध्यात्मिक स्तर के अनुरूप इन प्रतीकों के महत्त्व में भी अंतर रहा है। परंतु, यदि पदार्थ का गहन-अध्ययन किया जाए, तो यह ज्ञात होगा कि एक ही अनिवार्य ज्ञान की प्रतीति (श्रुति) किसी भी जाति द्वारा अपनी प्रकृति तथा चारित्रिक विशेषताओं के अनुरूप विकसित प्रतीकों के माध्यम से होती है।
प्रतीकों का महत्व क्या है..?
प्रतीकीकृत विश्वासों से अनभिज्ञ लोग इन प्रतीकों के मिथ्या अर्थ ग्रहण करते हैं। साधारण पश्चिमी मानस की दृष्टि में अधिकांश हिंदू प्रतीक विकर्षक और असंगत हैं। परंतु, यह नहीं भूलना चाहिए कि पश्चिमी विश्वास के कुछ प्रतीक भी हिंदू-मानस पर वैसा ही प्रभाव छोड़ते हैं। काली के प्रतीक अहिंदुओं में घृणा और भय उत्पन्न करते हैं। काली वह देवी है, जो स्वयं में सृजन करके सकल पदार्थ स्वयं में ही लौटा लेती है। उसे काली इसलिए कहा जाता है कि वह काल को ग्रस लेती है और अपनी अंधकारमय निराकारता ग्रहण कर लेती है।
काली की परिकल्पना क्या है..?
दृश्य पटल श्मशान का है, जहां धूप में सूखी श्वेत हड्डियां तथा घिनौने पशुओं और पक्षियों द्वारा कुतरे और नोचे गये मांस के टुकड़े बिखरे हैं। यहां मध्यरात्रि में वीर साधक भयोत्पादक कर्मकांड में लीन है। ऐसी ही पृष्ठभूमि में काली की परिकल्पना की गयी है, क्योंकि वह महाशक्ति का वह रूप है, जो जगत के विलयन के रूप में समस्त वस्तुजगत को स्वयं में लौटा लेती है। साधक सभी सांसारिक कामनाओं को त्यागकर अकेला और भयरहित साधना करता हुआ परमानंद और पूर्णानुभव के माध्यम से काली में विलीन होने की कामना करता है। श्मशान में सब सांसारिक कामनाएं जलकर भस्म हो जाती हैं। काली दिगंबरी और पयोधर मेघों के समान भयानक श्यामांग है। वह श्यामा है, क्योंकि वह स्वयं मन और वाणी से इतर रहकर भी सकल पदार्थों को सांसारिक ‘शून्य’ में परिवर्तित कर देती है, जो शून्य होने के साथ-साथ प्रकाश और शांत रूपी पूर्ण है।
वह दिगंबरी है, क्योंकि आकाश (स्पेस) ही उसका वस्त्र है, क्योंकि महाशक्ति अनंत है, वह स्वयं मायातीत है, वह अपनी शक्ति स्वयं है, जिससे वह अपनी प्रकृति को आवरित करती है और इस प्रकार जगत का सृजन करती है। वह शवरूप शिव पर आरूढ़ है, शिव श्वेतांग है, क्योंकि वह चित का अनुभवातीत प्रकाशरूप है।
वह शवरूप है, क्योंकि वह सर्वशक्तिमान का अपरिवर्तनीय रूप है, और काली उसी का परिवर्तनशील रूप। वस्तुत: काली और शिव शक्ति के एक रूप हैं क्योंकि वे एक ही द्वैतरूप हैं, जो अपरिवर्तनीय है और परिवर्तन के रूप में अवस्थित है।
नरमुंडों का क्या अर्थ है..?
काली के इन तथा अन्य प्रतीकों—जैसे खुली केशराशि, लपलपाती जिह्वा, मुख से टपकती क्षीण रक्त धार, पाद स्थिति, मृतकों के हाथों से निर्मित कमरबंध, अस्त्र-शस्त्र आदि के विषय में बहुत कुछ कहा जा सकता है। यहां हम केवल काली की ग्रीवा में वर्णमाला की भांति लटकी ताजे कटे नरमुंडों की माला के विषय में बात करेंगे।
काली के संबंध में कुछ महत्त्वपूर्ण कथन –
कुछ विद्वानों का अनुमान है कि काली मूलतः विंध्याचल की पर्वत-शृंखलाओं के श्यामवर्णी निवासियों की देवी थी जिसे
कालांतर में ब्राह्मणों ने अपनी आराध्य बना दिया।
एक विद्वान ने तो यहां तक कहा है कि काली इन मूल निवासियों की देवतुल्य राजकुमारी थी जिसने आक्रमणकारी आर्यों से युद्ध किया था। इस विद्वान ने इस महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर भी संकेत किया है कि नरमुंड श्वेत आर्यों के हैं।
पश्चिमी मानस यह कह सकता है कि काली भारतीय मानस का मृत्यु-शक्ति को देवत्व प्रदान करनेवाला वस्तुगत रूप है। पूर्व में रहनेवाला व्यक्ति यह कह सकता है कि काली एक संकेत है, जो आध्यात्मिक शक्ति की भारतीय मानस पर छाप का परिणाम है। यहां हम इस विषय पर विचार करने के लिए नहीं रुकेंगे। हमारे सामने प्रश्न यह है कि अब इन रूपकों का अर्थ क्या है और शताब्दियों पहले के, उपासक के निकट इनका अर्थ क्या था?
गुह्य साधना की व्याख्या यह है कि काली की माला असुरों के मुंडों से बनी है, जिन्हें काली ने न्यायशक्ति के रूप में विजित किया है।
भारतीय तंत्रशास्त्र की एक आंतरिक व्याख्या के अनुसार यह
वर्णमाला है, अर्थात संस्कृत के पचास अथवा इक्यावन (जैसा कि कुछ विद्वान स्वीकार करते हैं) अक्षरों से निर्मित है।
यही व्याख्या हेरूका महान द्वारा धारित माला के विषय में बौद्ध देगचोल तंत्र में दी गयी है ये अक्षर नामरूप जगत का
प्रतिनिधित्व करते हैं। अर्थात शब्दों और उनके अर्थों का। सकल पदार्थों को लील लेनेवाली काली उनका ‘वध’ करती है।
अर्थात वह दोनों को (शब्द और अर्थ) प्रलय के समय अपनी अविभाज्य स्थिति में सब कुछ समाहित कर लेती है। वह उन
अक्षरों को धारण करती है, जिन्हें उसने सर्जक के रूप में जन्म दिया है। वह उन्हें स्वयं में समाहित कर लेती है, क्योंकि वह विलयन शक्ति है। इन अक्षरों के साथ एक गहन सिद्धांत जुड़ा है, जिसके विस्तार में जाने का यहां अवसर नहीं है। इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि काली के सृजनात्मक प्रक्षेपण की गतियां इन अक्षरों से सूक्ष्म और स्थूल दोनों रूपों में होती हैं, जो शरीर के आभ्यंतर केंद्रों अर्थात कमलों में अवस्थित हैं।
शब्द ब्रह्म है—
संक्षेप में कहें, तो शब्द, जिसका सामान्य अर्थ ध्वनि होता है, अपनी कारणात्मक स्थिति (परा-शब्द) में अवस्थित होता है।
इसे परावाक कहते हैं।
यह शब्द-ब्रह्म है, सत्य अथवा चित का वह पक्ष, जिसमें वह सर्जन, अर्थात चित के द्विभाजन— ‘अहम’ और ‘इदम’, विषय और वस्तु, चित्त और पदार्थ—का तुरंत-कारण होता है। कारणात्मक शब्द की यह स्थिति सुषुप्ति की अवस्था है।
अपनी कारणात्मक निद्रा से जागकर यह शब्दब्रह्म ‘देखता’
है, अर्थात सृजन जगत की कल्पना करता है, और तब यह पश्यंती-शब्द कहलाता है। जब चित्त देखता है या कल्पना करता है, तब सर्जक चित्त में रूप उभरते हैं, जो अतीत सृष्टियों के अवशेष हैं।
अतीत सृष्टियों का अस्तित्व प्रलय के समय उनके सुषुप्ति की अवस्था में प्रवेश करने पर हुआ था। निराकार चित्त जब रूप-जगत के ऐंद्रिक जीवन का आनंद लेने के लिए पुनः जाग्रत होता है, तब ये संस्कार भी पुनः उभरने लगते हैं।
वैश्विक चित्त सर्वप्रथम ग्राहक और ग्राह्य दोनों है, इस अवस्था तक वह अपने विचार का पदार्थ के स्तर पर प्रक्षेपण नहीं करता। ग्राहक के रूप में चित्त शब्द है और ग्राह्य के रूप में वह सूक्ष्म अर्थ है। इस शब्द को मध्यमा-शब्द कहते हैं।
यह ‘आंतरिक नामकरण’ अथवा ‘छद्म- वाणी’ है । इस स्तर पर वर्ण अथवा बोले गये अक्षरों का उत्तर स्थूल वाणी के सूक्ष्म रूप अर्थात ‘मातृका’ देते हैं।
इस स्तर पर पहुंचकर चित्त का विषय और वस्तु के रूप में विभाजन हो जाता है। परंतु, इसी अवस्था में वस्तु स्वयं अपना अंश बन जाती है। यह अवस्था ‘स्वप्न’ की अवस्था है। यहां वैश्विक चित्त इन मानसिक चित्रों को पादार्थिक स्तर पर प्रक्षेपित करता है और ये मानसिक चित्त पदार्थरूप (स्थूल अर्थ) ग्रहण कर लेते हैं। ये पदार्थ रूप सृजित चित्त के मानस पर बाहर से प्रभाव छोड़ते है। यह जागृत अवस्था है।
इस अंतिम अवस्था में विचारगति वाक-अवयवों के वायुरूप के माध्यम से ‘वैखरी-शब्द’ के रूप में स्वयं को अभिव्यक्त करती है।
यह ‘वैखरी-शब्द’ अक्षरों पदों और वाक्यों से निर्मित होता है। यह आक्षरिक ध्वनि व्यक्त शब्द अथवा नाम है तथा वाणी द्वारा संकेतित भौतिक पदार्थ स्थूल अर्थ अथवा रूप है।
न अहम, न इदम—
अलग-अलग व्यक्तियों की व्यक्त-भाषा भिन्न होती है। यह सृष्टि इन अक्षरों और नामों तथा उनके अर्थों, अर्थात उनके स्वरूपों और इंद्रियगोचर रूपों से निर्मित हुई है। जब काली सृष्टि को लौटा लेती है, अर्थात जब वह अक्षरों द्वारा सांकेतिक नामों और रूपों को लौटा लेती है, तो चित की द्वैतता, अर्थात सृजन विलीन हो जाता है। तब न ‘अहम’ होता है, न ‘इदम’ होता है केवल अद्वैत पूर्णानुभव। काली का यही स्वरूप है। इसी दृष्टि से उसकी ग्रीवा में पड़ी मुंडमाला को समझा जा सकता है।
यह बात अकसर पूछी जाती है कि क्या हिंदू आराध्य मां काली का चित्र देखकर इतनी गहराई में जाता है।
निश्चय ही नहीं। वह उतनी ही गहराई तक जाता है, जितनी गहराई तक उदाहरण के लिए-कोई साधारण इतालवी किसान कैथोलिक रहस्यवाद अथवा धर्मशास्त्र के पंडितों की सूक्ष्म बातों को समझता है। परंतु जब कोई पश्चिमी विद्वान भारतीय प्रतीकवाद का वर्णन या व्याख्या करने बैठता है, तो उसे ज्ञान और निष्पक्षता के निमित्त यह अवश्य समझना चाहिए कि विद्वान और सामान्य आराधकों के निकट उसके क्या-क्या अर्थ हैं।
तभी काली का अभिवादन किया जा सकता है, जिससे चित्त और उसके विचार तथा उन्हें अभिव्यक्त करनेवाला वाक उद्भूत होता है। वाक प्रकाश है, प्रकाशित करनेवाला चित्त है, अर्थ विमर्श है-उसका उद्देश्य। वाक वर्णों और पद-मंत्रों का रूप है। अर्थ काल है, तत्त्व है, और है भुवन-तथाकथित दूसरे अध्व-वाक और अर्थ से ही छह अध्वों से पूर्ण सृष्टि का सृजन हुआ है। काली की ग्रीवा में पदों और मंत्रों का निर्माण करनेवाले वर्णों की माला है। सृष्टि के अग्निमय विध्वंस के समय वे उसी में विलीन हो जाते हैं।
विरक्त 🍂