सुनो अंतर्मन! तुम व्यूहरचना को क्यूँ नहीं रोकते?
कितने ही संवेगो का प्रलाप है तुम्हारे भीतर
क्या कुछ नहीं पिरोया जाता हर क्षण तुम में
तुम कैसे इस ऊहापोह को आत्मार्पित करते हो
कितने ही धर्माधिकारी अपना ज्ञान परोसते हैं
उस ज्ञान को अलग-अलग तरह से बांटा जाता है
सच भी परतों से लिपट सा गया है आजकल
कुछ-कुछ मध्यम सा है जो जी लिया जाता है
और बचा हुआ विष की भांति पी लिया जाता है
तुम प्रकाश की तरह बिखर जाना चाहते हो
पर मेरे भीतर रचा व्यूह उसे बाहर नहीं आने देता
उपवन के वृक्ष भी विकसित होते रहते हैं निरंतर
कीटो और सर्पों को भी आश्रय देते हैं अपने पास
तुम भी तो हर विचार को आश्रय देते ही हो
फिर! तुम व्यूह तोड़ क्यूँ नहीं देते अपने आप ही
मुस्कुरा कर मुझे ताकना छोड़ भी दो न…
मैं स्थिर हूँ और विचलित भी और आश्वस्त भी
तुम अवश्य रहस्यमय हो मेरे प्यारे अंतर्मन
कितनी दुनिया है.. जितने लोग हैं उतनी ही
तो क्यूँ न मैं तुम्हें ही सुलझा लूँ………..?
“पर वचन दो कि तुम अब व्यूह नहीं रचोगे…”
शिविका 🌿