जो अपने आपको खोज रहे हैं, वो कुछ पकड़ते नहीं..अपने आपको भी नहीं! वो सीखकर समझकर आगे बढ़ते जा रहे हैं। जो उनके पास आता है, उसे सुनते हैं, समझते हैं और अपने ऊपर से उसे भी झाड़कर आगे की ओर निकल जाते हैं।सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि वो निभाई जाने वाली अपनी भूमिका की छाया से भी मुक्त हैं..।
इतनी भूमिकाओं के घुटन के बीच स्व स्वर की अनुभूति किसे ही होगी..? ‘ काया की माया ‘ या ‘ माया की काया ‘ , दोनों को किसी ओर से भी देखा जाए, एक दूसरे के भीतर सिमटी हुई दिखती हैं।
प्रार्थनाएं सिमट गई हैं छवियों में..पर ऐसा मानना ठीक नहीं होगा कि जो छवियों में प्रार्थनाएं नहीं कर रहे , उनका विश्वास दृढ़ नहीं है..?
जो गीत नहीं गा रहा, उसे गीत प्रिय नहीं..!
जो सज नहीं रहा , उसे श्रृंगार प्रिय नहीं..!
जो मौन हो गया है, उसे शब्द प्रिय नहीं..!
“कुछ लोग मौन यात्रा में हैं, उनका अटल विश्वास है कि कहीं कोई तो सुनता है..!”
शिविका