संसार अलग – अलग स्तरों से, भिन्न दिखाई देता है। यह बिल्कुल वैसा है जैसे , जितने व्यक्ति , उतनी ही विचारों की भिन्नता। दृष्टिकोण के रूपक बदलते रहते हैं। आरम्भ से लेकर अपने निर्धारित गंतव्य की ओर बढ़ते रहना भी एक गढ़ी हुई भूमिका से आता है। जिसमें तय किया जाता है कि अभी हम यहां से चले हैं और एक निश्चित जगह तक पहुंचना बाकी है।
गढ़ी हुई मानसिक व्यवस्थाएं बदलती रहती हैं। जैसे कि आज जो बात ठीक लग रही है, आवश्यक नहीं कि कल भी वैसी ही दिखे। यह परिर्वतन का ही एक उदाहरण है। जब कोई अपने बालपन में होता है, तो बालपन से सम्बन्धित जितने भी विचार हैं, उन सभी को आश्रय मिलता है। लेकिन जैसे ही वह आयु परिवर्तन की प्रक्रिया में शामिल हो जाता है, तो आयु मानकों के निर्धारित कार्य व्यवहारों को उस पर गिरा देने का प्रयास किया जाता है।
कितने सोच पाते होंगे..!
जीवन वह है, जो कि सूक्ष्म संवेदनाओं के आसपास घूमता है। आयु परिवर्तन के अनुसार बदलने वाले काठ के पुतलों का खेल नहीं। जिन्हें कहीं भी रख दिया जाए और वो वहां से हिले भी न..!
“काठ के पुतले या जीवन के पुतले…”
एक में प्राण नहीं हैं, और एक में प्राण हैं। जीवन में कई ऐसी दशाएँ देखने को मिलती हैं जहां पर कई बार दोनों एक जैसे दिखने लगते हैं । दुनियां में कहीं भी बिठा दो इन्हें किसी भी छोर पर, वहीं टिके रहेंगे।
“काठ के पुतलों में जीवन नहीं फूंका जा सकता; किंतु जीवन होने के बाद भी, जो काठ के पुतले बन गए हैं, उनको काठ के बिस्तर पर देखने के बाद , कोई विशेष अंतर तो परिलक्षित नहीं होगा..!”
शिविका 🌿