समय की धूल

समय की धूल

बहुत समय पहले एक सुनसान रास्ते से होकर गुज़र रही थी। वो छोटे – छोटे कंकड़ पत्थर से बना रास्ता था। वो रास्ता पक्की सड़क की तरह न होकर , किसी कच्ची पगडंडी जैसा था। जिसे अक्सर कच्चा रास्ता भी कह दिया जाता है। उस रास्ते पर आसपास वृक्ष थे, कंटीली झाड़ियां थीं। बहुत मुश्किल से उस पर कोई आते – जाते दिखता था। कई बार आसपास से गुज़रते हुए ऐसी जगहें दिख ही जाती हैं, जिन पर बरबस ही कोई जाता होगा।

जो लोग वीराने में रहते हैं, उन्हें शोर कांटों के घिरे हुए बगीचे जैसा ही लगेगा। मैं कई समय बाद फिर उस रास्ते पर चल दी थी। उस रास्ते पर जो भी आता, मैं बड़े ध्यान से उसे देखती थी। चाहे वो छोटे कंकड़ पत्थर ही क्यों न हों, जो अब धूल बन चुके थे। धरती की ओर आंखें गड़ाए चलने की आदत ने बहुत कुछ सामने रख दिया। मैं कई बार सोचती हूं कि चलते हुए अपने पैरों की गति को भी कितने लोगों ने ध्यान से देखा होगा..!

उस वीरान रास्ते पर हवा की आहट पहले की तरह नहीं थी, वृक्ष उखड़ चुके थे या उखाड़ दिए गए थे। कुछ वृक्षों के ठूंठ ही बचे थे, जिन पर छोटे – छोटे काले चींटे इधर से उधर घूम रहे थे। उन छोटे जीवों पर कोई दया की गई थी, ऐसा मालूम पड़ता है , नहीं तो महान मानव उस ठूंठ को भी क्यों छोड़ते वहां..?

“वो रास्ता अब वृक्ष विहीन हो गया था। कितनी उजड़ी लग रही थी वो जगह, जहां लोगों के अनुसार सब सुव्यवस्थित बसा दिया गया था…”

शिविका 🌿

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