बनी- बनाई राहें ?
बड़ा आसान है ऐसे जीना,
बनी – बनाई राहों पर चल देना…
हमारे जन्म लेते ही सांसारिक केंद्र, अपनी स्तुति करवाने आ पहुंचते हैं। कितनी हंसी की बात है न! जब तक कुछ जानने – समझने का होश भी आए, उससे पहले ही बहुत कुछ भीतर भरा जा चुका होता है।
नाम मिल चुका होता है, जाति मिल चुकी होती है, समाज मिल चुका होता है। इन सबके साथ , इनसे जुड़े वो सभी कार्य भी मिल जाते हैं, जिन विषयों पर यह सब टिके होते हैं। कई बार लगता है कि दुनिया प्रतिस्पर्धाओं का एक बहुत बड़ा मंच है। यह अलग बात है कि इस मंच के अंदर भी कई और मंच होते हैं। हर मंच पर अलग – अलग नाटकों का मंचन किया जाता है।
मैं सोचती हूं अगर यह नाटक न हो तो…! यह नाटक नहीं होगा तो, मन कैसे लगेगा। जो नाटक से ही ऊब गया , उसके लिए मंचों का खेल ही समाप्त हो जाता है। मंच समाप्त होते ही, प्रतिस्पर्धाओं का अंत स्वाभाविक है।
“विडंबना है कि असल चुनाव करने में जीवन के कई वर्ष लग जाते हैं, और उससे भी बड़ा यथार्थ यह है कि बहुत से लोग नाटकीय मंच पर, नाटक करते हुए ही चले जाते हैं। उन्हें स्मरण तक नहीं होता कि नाटक के खेल का अंत भी होना है ..।”
शिविका 🌿