सर्वाइवल ऑफ़ दा फिटेस्ट

सर्वाइवल ऑफ़ दा फिटेस्ट

Survival of the fittest

कुछ समय पहले एक चलचित्र देखा था । जिसका विषय था कि, किस तरह समाज में लोगों के भोजन का स्तर भी, उनके समाजिक स्तर के अनुसार चलता है। उस चलचित्र का नाम ‘ The platform ‘ था..

होता कुछ यूं है कि अपने आप को सबसे तेज़ दिमाग़ का मानने वाले लोग, कुछ लोगों को एकत्रित करके उन्हें एक बड़ी सी बिल्डिंग में बंद कर देते हैं। वो एक विशेष तरह का परीक्षण करना चाहते हैं, जिससे यह पता लगाया जा सके कि ‘ Survival of the fittest ‘ की अवधारणा, समाज में किस तरह कार्य करती है। अब यह बिलकुल नहीं कहा जा सकता कि यह Darwin से प्रेरित लोग हैं।

एक बड़ी अवधारणा के सामने आने के बाद, उसके नीचे बहुत सी छोटी – छोटी अवधारणाएं सामने आना शुरु कर देती हैं। वो सब कहती हैं कि हम उसी का रूप हैं। हम वही तो कर रहे हैं, जो सैद्धांतिक है, जो आवश्यक है। पर असल बात तो यह है कि विशुद्ध अवधारणा, अपने सामने आने के साथ ही हर अगले कदम पर अपना अस्तित्व खोती जाती है।

“करोड़ों लोगों की थाली पर भोजन है, करोड़ों लोगों की थाली पर बचा हुआ भोजन है और करोड़ों लोग थाली देख लेना भी भाग्य समझते हैं। “

‘ Survival of the fittest ‘ की धारणा, इस सामाजिक संरचना के उस स्तर को दिखाती है, जिसमें समानता एक कोरी कल्पना है। समानता की कल्पना करनी ही क्यों है..?
प्रश्न यह है कि कल्पना करनी ही क्यों है..?

जीवन में कल्पना करना सुंदर बात है, लेकिन यथार्थ देखना और कहना , यह अब भी सबसे दुष्कर लगता है..!

शिविका🌿

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