भारत का क्षेत्रवाद
लगभग सबके भीतर एक क्षेत्रवाद है। देश की बात से पहले वो करते हैं, क्षेत्र की बात।
पिछले वर्ष , मैं अपने गांव गई थी। वहां एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया गया था, और एक भव्य मन्दिर का निर्माण हुआ। मैं उस समुदाय का नाम उस मंदिर पर देखकर क्रोध से भर गई , हालांकि मैं पूरी व्याख्या करके भी उन्हें नहीं समझा सकती थी।
बहुत से ऐसे मन्दिर देखे, जो अपने अंतिम समय की राह तकते , जीर्ण- शीर्ण पत्थरों पर टिके हैं। उन मंदिरों के अंदर लैला मजनुओं के डंक स्वरूप विद्यमान, दिल के भीतर से निकलते तीर हर जगह दिख जाएंगे।
बुद्धि का स्तर है ही नहीं, दृष्टिगत रूप से बहुत कम लोगों को सच्चे मायने में संस्कृति और उससे जुड़े चिन्हों को सहेजने का विचार भी है । अधिकांश संस्कृति की आड़ लेकर इस समय इह लोक में अपनी स्थिति सुदृढ़ रखना चाहते हैं।
” अपनी संस्कृति को पढ़िए, थोड़ा धैर्य रखिए। पढ़ना आवश्यक है और उससे भी अधिक उसका मंथन। हो सकता है आप ज्ञान के चक्षुओं के सहारे , उस विराट के श्रेष्ठ मंथन की एक बूंद भी चख सकेंगे। जीवन आपकी सोच से भी अधिक अमूल्य है। जो भी व्यवधान है वो केवल दुनियादारी का है। एक समय के बाद लगेगा यह क्या कर दिया जीवन के साथ। जानिए , पढ़िए , समझिए…जो सभ्यता विराट है और रही है उसे अपने सीमित मन के अनुसार मत बताइए। जाकर पढ़िए भाषा के भावों को… ध्यान रहे यहां आचार्य शंकर के साथ , चार्वाक भी उपस्थित हैं। मत भिन्न हो सकते हैं , लेकिन उनका ज्ञान शीर्ष पर जाकर मिला जुला सा प्रतीत होगा। वो भी तब! जब सच में आपने ज्ञान को, अपने आंतरिक द्वारों से स्पर्श होने दिया हो..। “
शिविका🌿