अंधेरे का डर

अंधेरे का डर

मैदान में खेल रहे बच्चों का झुंड आज फिर से, शिब्बू को घेर कर बैठ गया था। शिब्बू उन सारे बच्चों को इकट्ठा करके अलग- अलग कहानियां सुनाती थी। उन कहानियों में वो सारी बातें होती थीं, जिनसे बच्चे जुड़ाव महसूस करते थे।

वो कहती कि हमें अपने आसपास की हर चीज़ को समझकर देखना चाहिए। बच्चों की उलझनों को, वो अपनी कहानियों के माध्यम से सुलझा दिया करती थी।

एक छोटा बच्चा हनु उसके पास आकर बैठ गया और बोलने लगा….

हनु –

शिब्बू मुझे अंधेरे से डर लगता है।

(शिब्बू ने प्यार से उसे अपनी गोद में बिठाया और कहने लगी)

शिब्बू-

तुम्हें पता है कि अंधेरे के साथ क्या हुआ था, हनु..?

हनु –

नहीं शिब्बू , मुझे नहीं पता ..

शिब्बू-

चलो ठीक है, मैं बताती हूं।

तो आज , मैं तुम सबको अंधेरे की कहानी सुनाती हूं….

(सारे बच्चे ध्यान से उस कहानी को सुनने लगे)

बहुत पुरानी बात है, कम से कम इतनी पुरानी,कि इस दुनिया के इतने हिस्से नहीं हुए थे।

बच्चे –

इतने हिस्से?

शिब्बू-

हां, इतने हिस्से…

अब तो हम अलग – अलग हिस्सों में रहते हैं न..

एक बच्चा –

इतने हिस्से क्यों करने पड़े दीदी..?

शिब्बू-

जब लोगों को लगता है, कि वो ठीक से साथ नहीं रह सकते , तो वो हिस्से कर देते हैं।

हनु –

आगे की कहानी सुनाओ न..!

शिब्बू-

इस धरती के सबसे गहरे हिस्से में परछाइयों का बहुत बड़ा साम्राज्य था। वहां दूर- दूर तक एक लंबी काली दीवार थी। उस दीवार के आर -पार कुछ भी नहीं दिखता था। हर ओर गहरा अंधेरा पसरा हुआ था।

वो अंधेरा , एक लंबे काले कपड़े में लिपटा हुआ, किसी बड़ी सी काली छाया जैसा दिखता था। जो कभी भी अपनी बनाई दुनिया से बाहर नहीं आता था।

उसके तीन गहरे दोस्त थे…
डर
आत्म संदेह
और आत्मविश्वास की कमी

इनके अलावा भी उसके और दोस्त थे, जो उस गहरे अंधेरे में घूमते रहते थे।

यह तीनों हर समय, अंधेरे के कान में फुसफुसाकर बात करते रहते। इन दोस्तों ने अंधेरे को हमेशा घेरे रखा। यह हमेशा उसके मन में डर, आत्म संदेह और आत्मविश्वास की कमी भरते रहते थे । यह चाहते ही नहीं थे कि अंधेरा अपने आप को जान सके।

एक बार अंधेरा शान्ति से बैठा हुआ था…और यह तीनों उसके पास आकर बात करने लगे।

डर –

संदेह कह रहा था, कि तुम बाहर जाना चाहते हो..?

अंधेरा –

हां, मैं वर्षों से सोच रहा हूं कि बाहर निकल कर देखूं यहां से…

डर –

मैंने सुना है कि बाहर प्रकाश रहता है, और प्रकाश अंधेरे का सबसे बड़ा दुश्मन है।

तुम ग़लती से भी बाहर मत जाना , नहीं तो तुम ख़त्म हो जाओगे।

आत्म संदेह –

हां दोस्त, बाहर की दुनिया तुम्हें धक्के मारकर निकाल देगी।

अंधेरा –

मैं यात्रा करना चाहता हूं, हज़ारों वर्षों से इस कोने में पड़े- पड़े मेरा दम घुटने लगा है।

आत्म संदेह –

तो उससे क्या हुआ..?

कम से कम तुम ज़िंदा तो हो।

बाहर जाओगे तो मार दिए जाओगे।

आत्म विश्वास की कमी –

दोस्त, तुम मेरी मानो तो यहीं रहो।

हम हैं तुम्हारे साथ, हर वक्त तुम्हें और गहरा करते जाएंगे।

तुम अकेले नहीं हो…

(अंधेरा उन तीनों की बात सुनकर सिमट कर बैठा रहता। इन सबकी बातों से अंधेरे की उन खोखली बातों को बल मिला, जिसमें वो हमेशा सोचा करता था कि हर चीज़ का अस्तित्व रंगहीन और धूमिल है)

डर हमेशा उसके दिमाग़ में घुसकर बातें किया करता था कि…

“क्या होगा, यदि प्रकाश तुम्हें नष्ट कर दे?”

“तुम जानते हो, कि यह हमें मिटा देना चाहता है, हमें हमेशा के लिए मिटा देना चाहता है।”

आत्म-संदेह भी चीख – चीखकर कहता कि…

 “क्या होगा अगर प्रकाश हमारी खामियां उजागर कर देगा ..?”

“हम यहां अंधेरे सबसे छिपकर ही  सुरक्षित  हैं।”

दूसरी ओर से आत्मविश्वास की कमी चिल्लाती हुई आई …

“हम प्रकाश का सामना करने के लिए मज़बूत नहीं हैं।”

“हम छाया हैं, और छाया को अंधेरे में ही रहना चाहिए।”

अंधेरा यह सब सुनकर चुपचाप सिर हिला देता था। उसे विश्वास होता जा रहा था कि प्रकाश उसका दुश्मन है और उसके सामने जाते ही यह कमज़ोर पड़ जाएगा। इसका अस्तित्व ही मिट जाएगा।

एक दिन की बात है, अंधेरा किसी सुनसान जगह से होकर गुज़र रहा था। तभी उसे प्रकाश के आने का अहसास हुआ। उसने ऐसी चमक पहले कभी नहीं देखी थी।

प्रकाश ने कहा –

तुम कौन हो, बाहर आओ…चलो साथ में खेलते हैं।

अंधेरा –

तुम मेरे दुश्मन हो, तुम मुझे मार दोगे।

प्रकाश –

तुम डरो मत, मैं तुम्हे कोई हानि नहीं पहुंचाऊंगा।

“मैं तुम्हें ऐसे कई रंग दिखाना चाहता हूँ , जो तुमने कभी नहीं देखे होंगे।”

(अंधेरा पीछे हट गया, उसकी काली चादर, उसके चारों ओर कसकर लिपट गई)

अंधेरा –

“मुझसे दूर हो जाओ,” (वह गुर्राया)

“रंगों का कोई अस्तित्व नहीं है…

मैंने अपना पूरा जीवन इसी तरह बिताया है, इसके अलावा कुछ भी दिलचस्प नहीं है…

(प्रकाश यह सब सुनकर भी शान्ति से जवाब देता रहा)

प्रकाश –

“दुनिया में जितना तुम जानते हो , उससे कहीं अधिक है, प्यारे दोस्त..”

हमारे आसपास जो भी है, तुमने उसका केवल एक अंश ही देखा है।

आओ मेरे साथ ,मैं तुम्हें दिखाता हूँ।

(अंधेरा झिझक रहा था, अपनी जिज्ञासा और अपने दोस्तों की कही बातों के बीच उलझा हुआ था। उस रात, वह वापिस अपने कोने में चला गया, जहाँ डर, आत्म-संदेह और आत्मविश्वास की कमी इंतज़ार कर रहे थे)

“तुम प्रकाश पर भरोसा नहीं कर सकते,”

(डर ने ज़ोर देकर कहा)

“इससे तुम्हें ही नुकसान होगा।”

“ख़तरों के बारे में सोचो”

(आत्म संदेह बोला)

 “क्या होगा यदि प्रकाश उन चीज़ों को दिखा दे, जिन्हें तुम देख भी न सको?”

(आत्मविश्वास की कमी ने कहा)

 “हम यहां सुरक्षित हैं।”

“अंधेरे में, हम छिपे हुए हैं। हम सुरक्षित हैं।”

(लेकिन,  उनके शब्दों के बावजूद, अंधेरे के मन में जिज्ञासा का बीज बढ़ता जा रहा था। वो अपने आप से कहता रहा..)

अंधेरा –

यदि प्रकाश की बातें सही हुईं तो?

क्या होगा, अगर ऐसे रंग और अनुभव हों ,जिन्हें उसने कभी नहीं जाना हो?

(इन सवालों ने उसे परेशान कर दिया, जिससे उसके दोस्तों की बातों का असर कम होता गया)

अगले दिन प्रकाश लौट आया… उसने अंधेरे को पुकारा…

प्रकाश –

 (उसने धीरे से कहा)

“मुझ पर भरोसा करो दोस्त।”

अंधेरे ने गहरी साँस ली, उसकी काली चादर भी सहमी हुई थी… उसने कहा –

अंधेरा –

“ठीक है, मुझे दिखाओ वो दुनिया और वो सारे रंग ..”

(प्रकाश खुशी से चमक उठा और उसने अपना हाथ बढ़ाया)

अंधेरे ने उसका हाथ पकड़ते ही एक गर्माहट महसूस की, जो उसने पहले कभी अनुभव नहीं की थी। एक साथ, वो दोनों दुनिया में चले गए, और पहली बार, अंधेरे को रंग दिखाई देने लगे। उसने सूरज देखा , आकाश का नीलापन और जंगल की हरी-भरी हरियाली भी देखी…

जैसे-जैसे समय बढ़ता गया, प्रकाश और अंधेरा , गहरे दोस्त बन गए। अंधेरे ने पाया कि प्रकाश उसे नष्ट नहीं करना चाहता था,  बल्कि उसके भीतर छिपी गहराइयों को उजागर  करना चाहता था।

एक शाम, जब वो दोनों साथ खड़े होकर तारों को देख रहे थे, अंधेरा प्रकाश से पूछता है कि –

अंधेरा –

“तुम मुझ पर इतने दयालु क्यों हो?”

“मैंने हमेशा माना है कि तुम मेरे दुश्मन हो।”

प्रकाश मुस्कुराया, और बोला –

प्रकाश –

 “तुम और मैं दुश्मन नहीं हैं, मेरे दोस्त। हम एक ही ब्रह्मांड का हिस्सा हैं। तुम्हारे बिना, मैं अधूरा होता। तुम्हारे कारण ही  मुझमें चमक है और मेरे कारण ही तुम्हें रंग मिलते हैं।”

उस पल में, अंधेरा समझ गया था कि ,  जिस डर, आत्म-संदेह और आत्मविश्वास की कमी ने उसे परेशान किया था, वह उसकी बनाई हुई परछाइयाँ थीं ।प्रकाश की उपस्थिति में, वे नष्ट होने लगीं।

अंधेरे को प्रकाश का साथ अच्छा लगने लगा, इसलिए नहीं कि प्रकाश उससे अलग था, बल्कि उसे एहसास हुआ कि प्रकाश के स्पर्श से उसके भीतर का अंधकार किसी सुंदर चीज़ में बदल सकता है। वह समझ गया कि अंधकार और प्रकाश एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

उनकी इस एकता में, अंधेरे को शांति और आत्मज्ञान मिला। उसने देखा कि उसके सबसे अँधेरे हिस्सों में भी प्रकाश की संभावना है। रंगों के आने की संभावना है। इस बात को अपनाते हुए, अंधेरे और प्रकाश ने,  छाया और चमक का साथ लेकर, अपनी यात्रा जारी रखी।

हनु –

और अंधेरे का क्या हुआ शिब्बू..?

शिब्बू-

मेरे प्यारे हनु, अंधेरा हमेशा के लिए बदल गया।

“उसके डर का अंत हो गया। अंधेरे और प्रकाश ने साथ मिलकर , जीवन की शुरुआत के बारे में जाना । जहां पर दोनों एक साथ प्यार से लुका – छिपी खेलते थे…!”

शिविका🌿

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