अन्वेषण
(अघोरी साधु गंगा के किनारे बैठे, अपने शरीर पर राख मलते हुए, गंगा नदी से बात कर रहा है, तभी एक अन्य व्यक्ति वहां पहुंच जाता है और साधु से बात करने लगता है)
अघोरी साधु :
पवित्र नदी, गंगा। तुम समय के साथ बहते हुए, मानवता के पाप धोती आ रही हो। कितनी आशाएं और निराशाएँ तुम्हारे भीतर प्रवाहित होती हैं..!
व्यक्ति :
यह भी अच्छा है, आधी रात को नदी के किनारे बैठकर आते जाते लोगों को डराना …
और तुम्हारे यह अनुष्ठान, तुम्हारे मंत्र..!
तुम इनमें क्या खोजते हो?
अघोरी:
डर..?
अपने आप से नहीं डरते..?
सबसे अधिक डर तो अपने आप से होना चाहिए..!
व्यक्ति:
यह राख लपेटने से कौन सा डर समाप्त हो जाता है..?
अघोरी:
जिन्हें स्वांस की चंचलता का बोध नहीं, उन्हें क्या बताया जा सकता है..?
मैं सार खोजता हूँ-भ्रम के विघटन का , जीवन और मृत्यु के नृत्य का।
यह नदी ,गंगा..!
सब जानती है..
गर्भ और श्मशान , दोनों की वास्तविकता सदियों से देखती आ रही है…
व्यक्ति:
मानव खोपड़ी के इस प्याले से , तुम्हें कौन सी वास्तविकता का बोध हो जाता है..?
अघोरी:
नश्वरता का स्वाद चखने के लिए…
जीवन और मृत्यु यहाँ विलीन हो जाते हैं। यह खोपड़ी मुझे याद दिलाती है, कि सब ब्रह्मांडीय नृत्य के टुकड़े ही तो हैं।
और यह शरीर, केवल एक बर्तन …
व्यक्ति:
लेकिन अघोर प्रथाएँ सामान्य लोगों को अशांत कर सकती हैं..?
अघोरी :
(मुस्कुराते हुए)
अशांति के रास्ते पर, जागृति भी होती है। भय, निषेध , हमें अंधा कर देते हैं।
मैं प्रकाश पाने के लिए अंधकार को गले लगाता हूँ। अघोरी मार्ग टेढ़ा-मेढ़ा है, लेकिन यह द्वैत से परे ले जाता है।
व्यक्ति:
जो लोग गंगा नदी में पवित्रता खोजने आते हैं..उनके बारे में क्या सोचते हो तुम..?
अघोरी:
पवित्रता? भ्रम!
हाँ, लेकिन मात्र स्नान से नहीं!
भीतर की शुद्धि के बाद ही, पवित्रता का स्पर्श संभव है।
व्यक्ति:
और यह भीतर का उपचार क्या है?
अघोरी :
(पानी को छूता है)
उपचार?
यह जड़ी-बूटियों या औषधियों में नहीं है। यह शरीर से परे देखने में है, ब्रह्मांडीय नाड़ी से जुड़ने में है..!
जब मैं उपचार करता हूँ, तो मैं शरीर नहीं, आत्मा को ठीक करता हूँ।
व्यक्ति :
तुम काली का आह्वान क्यों करते हो?
अघोरी .:
काली मेरी नसों में नाचती है। वह विध्वंसक है, मुक्तिदाता है।
उसका क्रोध भ्रम को भस्म कर देता है।
जब मैं उसका आह्वान करता हूँ, तो मैं परिवर्तन का आह्वान करता हूँ।
व्यक्ति:
(धीरे से)
अघोरी, क्या तुम्हें कभी..! अपने अंधेरे में डूबने का डर लगता है?
अघोरी .:
नहीं..!
वहां भटकने के बाद ही तो शक्तियों का स्मरण होता है…
मैं और गहराई में गोता लगाता हूँ , तो मैं स्रोत से मिल जाता हूँ…जिसने अस्तित्व को जन्म दिया..।
व्यक्ति.:
और आगे क्या है?
अघोरी:
मौन। शून्य।
जब मैं विलीन होता हूँ, तो मैं नदी, आकाश, राख सब बन जाता हूँ। सीमाएँ विलीन हो जाती हैं।
व्यक्ति :
(सहजता से अघोरी को देखते हुए कहता है)
मैं भी आज इस धारा में विलीन होने आया था…लेकिन अलग तरह से!
आपने मुझे एक दिशा दी है..
अघोरी:
(मुस्कुराता है…)
दिशाएँ, दशाओं की सेवक नहीं होती..
अन्वेषण अपनाना चाहिए…
(गंगा नदी बह रही है, अघोरी अपने आप में रमा हुआ है और व्यक्ति नदी की धारा को देखकर मुस्कुरा रहा है, नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं..)
शिविका🌿