अकड़ की कुल्हाड़ी
प्राचीन समय में लोग प्राकृतिक तत्वों से जुड़े हुए थे और सम्मान की भावना से उनका उपयोग करते थे। यह कुछ ऐसा था जैसे नदी के पानी का उपयोग करने से पहले उससे प्रार्थना की जाती थी । साथ ही धरती पर हल चलाने से पहले उससे प्रार्थना करना। वृक्षों से फल लेने से पहले उनसे संवाद करना और ऐसे कितने ही संबंध थे, जिनमें व्यक्ति जानता था कि प्रकृति का सम्मान आवश्यक है।
लोगों को लगता कि प्रकृति के पास वो सारे रहस्य हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित किए जाते हैं। कभी मूसलाधार बारिश होती, तो उफनती नदियों को देखकर माना जाता कि प्रकृति क्रोध में है। उसे नज़रंदाज़ नहीं किया जाता था। हर बात को सूक्ष्मता से देखकर समझने का प्रयास किया जाता था।
समय के साथ, बस प्रयोग रह गया, दोहन रह गया… प्रकृति के साथ संबंधों का क्षय होता गया। संवाद की अनुपस्थिति में जड़ता आ जाती है। मानव के साथ भी यही हुआ, प्रकृति के साथ संवाद में दूरी से, हर उस बात से दूरी बन गई जिस पर मानव का अस्तित्व टिका था।
किसी ने एक दिन भी शान्ति से अनुभव किया हो, तो वो पूरा जीवन बदलने का सामर्थ्य रखता है। होश में बिताया हुआ एक दिन भी , पूरे जीवन से बड़ा हो सकता है। यह कहते हुए अक्सर लोगों को सुना जा सकता है कि जीवन केवल बाहरी साजो सामान के बारे में नहीं है। कहने में जितनी सुविधा रही है, धारण करने में उतनी ही असुविधा।
“मानव अपनी भ्रमित अकड़ की कुल्हाड़ी लेकर हर उस चीज़ को काटता जा रहा है, जिसमें उसके अस्तित्व के बीज बोए गए हैं..।”
शिविका🌿