अहं ब्रह्मास्मि
वृक्ष से टूटे हुए फल को अगर मिट्टी मिल जाए , तो वो समय चक्र में बढ़ता हुआ स्वयं एक वृक्ष में बदल जाता है। प्रकृति के जादू को देखने के लिए अपने आपको उसका हिस्सा बनाना होगा। यह बिलकुल वैसे है जैसे ईश्वर से संवाद के लिए या फिर सर्वश्रेष्ठ संवाद के लिए, अपने भीतर ईश्वर को खोज लेना।
शुक्ल यजुर्वेद के बृहदारण्यक उपनिषद में कथित महावाक्य, “अहं ब्रह्मास्मि”… यह पूरी तरह से ब्रह्म के साथ चेतना के एक हो जाने की बात करता है। इसमें द्वैत का प्रश्न ही नहीं उठता। भागती हुई परछाइयों सा जीवन, अपने आप से भी कोसों दूर ले जाता है। जहां पर एक ही बात रह जाती है, बाहर की ओर निरंतर झांकते रहना।
इस बात पर हमेशा ही कितना बल दिया गया है कि यह जीवन केवल खान – पान और भोग से जुड़े विषयों के लिए नहीं है। फिर भी इसे नज़रंदाज़ किया गया। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण सीढ़ी है, मानव शरीर के भीतर चेतना का आगमन। शरीर के भीतर चेतना की स्थिति बहुत अलग होती है, वो निरंतर इस प्रयास में होती है कि कोई संवाद बन सके। व्यक्ति अपना खालीपन ठीक करने बाहर की ओर भागता रहता है, जबकि चेतना उसे निरंतर संवाद में लाने का प्रयास करती रहती है।
“दो मिनट अपने साथ बैठ ना सके और कहते हैं जीवन जी लिया है। दूसरों को भी भ्रमित किया और अपने आप को भी। समझ की सीढ़ी का निर्माण, संभव है कि एक लंबे समय बाद हो , लेकिन उस पर चढ़ने के लिए अदृश्य आन्तरिक साहस ही प्रभावी होता है..।”
शिविका🌿