कला और कलाकार

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कलाकार की क्षमता अपने आरोहण पर थी…ऊँचे स्वरों की ध्वनि अम्बर को चीर कर ब्रह्मांड के निकट पहुँच रही थी। हर कोई यशगान कर रहा था ! सब उसे अपने मन के हिसाब से अपने-अपने प्रशंसा रूपी शब्द भेंट कर रहे थे। क्षितिज पर उसकी रौशनी की तरंगे गिरती जाती थी। वो शोर हर ओर से उसे अंदर तक भेद रहा था। उसने जो पाया था वो उसका स्वप्न था ; जिसे अब अन्य लोग जी रहे थे, पर उसके मन में भावशून्यता थी।

वो समय के आखेट का शिकार हो चुका था, कितनी ही जिज्ञासाओं को शांत कर उसने ये पाया था, हाँ ये शोर ही तो पाया था। उसने व्यंग्य भरे भाव से स्वयं से संबोधन किया कि, मैं तो शांति अर्जित करने निकला था और अपने अंदर की आग को थोड़ा सा शांत करना चाहता था, वो भी अपनी बेचैनी को कम करने के लिए। पर ये क्या स्वप्न पूरा करते-करते मैं तो भीड़ का शोर बन गया। मुझे यह तो नहीं चाहिए था, मेरी कला कब इस भीड़ के प्रति आसक्त हो गई! इसका तो ज्ञान ही नहीं हुआ और अब इस भीड़ में अपनी कला को संभाले, मैं अब भी अपनी तलाश में हूँ।

कैसी विडंबना है ! मैं अपनी कला को जीते-जीते,कब इस भीड़ के चँगुल में फंस गया पता ही नहीं चला। अब मुझे और अशांति होती है , मैं कई बार स्वयं से कहता हूँ कि इस भीड़ को कह दूँ कि मेरे आडंबरों को अपनी स्वछन्दता में ना घुसने दे। मेरे विचार घुसपैठियों की तरह तुम सबके जीवन में आमरण बस जायेंगे और उसी को सच मानकर अपने जीवन को जीना शुरू कर दोगे। मैं तो उम्र भर दुखान्त में रहा हूँ, जहाँ जिज्ञासाओं का मेला लगा था ! जिसमें से अपने अनुसार सब चुनकर बाकी बातों की तिलांजली मैंने दे दी। ये समाज मुझे कब का बहिष्कृत कर चुका है ! और आज यह शोर मेरे पागलपन को सत्य में कैसे बदल पा रहा है।

मैं कितना चीखता था ! अपने सच के लिए और कोई उसे पूर्ण कल्पना तक नहीं मानता था और अब इस भीड़ के स्वर ने उसे सत्य बना दिया, मतलब अस्तित्व इस भीड़ का है! पर मैं तो कभी भीड़ में था ही नहीं, आज भी नहीं हूँ.. ना कभी हो पाऊंगा। आज अपनी हर बात सत्य प्रतीत होती देख भी मैं दुःखों से घिरा हुआ हूँ। अकेलेपन का दुःख जिसमें मेरी तलाश अब भी जारी है,वैचारिक संघर्ष मेरी सबसे बड़ी अनसुलझी पहेली रही है। फिर भी ठीक है, कलाकार हूँ कल्पना साकार करने वाला। अपनी पहेलियों का गला नहीं घोटा मैंने और तभी इस भीड़ के सामने भी खड़ा हूँ अकेला और मैं तब भी अकेला था।

मैं सच्चा कलाकार आप सबसे अनुरोध करता हूँ मुझे प्रशंसा का पात्र मत बनाइये , हमेशा से एकांत मेरी साधना रही है और उससे प्राप्त फल मेरी बेचैनी को शांत करने का इकलौता साधन। मैं दुःखद घटना हूँ या प्रतिबिंब इस भीड़ का…लेकिन यह आंतरिक शोर अधिक बड़ा है इस भीड़ से ….

शिविका

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