बसेरे की उलझन

बसेरे की उलझन

किसी कार्य के आरम्भ में तैयारी के साथ बेचैनी भी अपने शिखर से चढ़ती उतरती रहती है। आरंभ ऐसा दिखता है जैसे किसी बात को परखा जा रहा है, उसके होने के लिए। एक बार उसका स्वरूप जान लिया जाए फिर सब शान्ति से चलने लगता है।

जानने के बाद ही किसी बात के साथ सहजता बनाई जा सकती है। कई बार जीवन इतना छोटा दिखाई पड़ता है कि, आँखें मूंदने और खोलने के बीच ही बीत जाए। स्थिरता चुनने की ओर बढ़ते हुए व्यक्ति ने , अनजाने में हमेशा ही अस्थिरता का चुनाव किया है।

बसने जैसा क्या है..?

बसने जैसा कुछ भी नहीं, जो अपने भीतर नहीं बस पाया , बाहर जाने किस बसेरे को ढूंढ़ता है। बसेरे के भ्रम ने जीवन भर , व्यक्ति को अपने आप से दूर रखा। मैंने घरों के बंटवारे देख कर यह अंदाज़ा बहुत पहले लगा लिया था कि, घर बनाने वाले को अगर पता होता कि बाद में वो लड़ाई का गढ़ बन जायेगा तो वो कभी ‘ भ्रमित बसेरे’ को बनाने में अपना पूरा जीवन नहीं लगाता।

“चुनाव की प्रक्रिया में हमेशा गुथी बुनी हुई चीज़ें उठा लेना आसान लगता है । पूरी दुनिया वही करने में व्यस्त बताती आई है अपने आपको। सबसे कठिन है अपने आपको सुलझाना..!”

शिविका🌿

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