भीड़ का, भेड़ हो जाना..!

भीड़ का, भेड़ हो जाना..!

भीड़ का, भेड़ हो जाना..!

बाढ़ के कारण जो विध्वंस होता है, उसकी पूर्व स्थिति पहचानना कठिन है , कि कौन सी चीज़ कहां थी..!

संस्कृति के क्षेत्र में आई विचारों की बाढ़ ने, सब इधर-उधर कर दिया। जो अवशेष रह गए थे, उसमें से अपने हिसाब से चुन लिया गया। यह सोचकर कि एक समय में यह उसी का हिस्सा था। यह भी संस्कृति ही है।

लेकिन, ध्यान देने वाली बात यह है कि अवशेष पूरा स्वरुप नहीं बता सकते..। वो आधार की जानकारी दे सकते हैं, वो भी उनको जिन्हें आधार का ज्ञान हो। बाकी सबके लिए स्वरूप का ही महत्व है। स्वरूप पर टिके विषयों को हमेशा से चुना गया है, आधार विस्थापित नहीं हो सकते। इसी कारण उसे समझकर स्वरूप गढ़े गए। यह स्वरूप समय की स्याही में रंगकर और गाढ़े हो गए।

आज भी हैं कुछ लोग, जो आधार को समझना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि स्वरुप एक मनगढ़ंत रचना है। कुछ लोगों ने भवनों के आधार खोजे, कुछ लोगों ने दुनिया के अलग अलग विषयों को चुनकर उनका आधार जानने का प्रयास किया और कुछ लोगों ने स्वयं के स्वरुप को भेदकर, अपने आधार में झांकने का प्रयास किया।

“स्वरूपों की बदलती भीड़ में, असल आधार ही सबकुछ है..!”

शिविका🌿

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