चुनाव
अकेले चलने वाला व्यक्ति पंक्ति नहीं जानता, वो चलता जाता है.. बाद में दुनियां उसके पद चिन्हों को देख कर उसके कदमों की छाप पर, अपने कदम रखकर चलना चाहती है। बिना यह समझे कि चलने वाले ने, चलने से पहले किन आधारों का चुनाव किया होगा। बहुत बार बेचैनी से लड़खड़ाया भी होगा लेकिन चलता रहा। इस भाव से कि, मन वहीं रुके जहां असल आश्रय हो।
किसी कार्य के आरम्भ में तैयारी के साथ बेचैनी भी अपने शिखर से चढ़ती उतरती रहती है। आरंभ ऐसा दिखता है जैसे किसी बात को परखा जा रहा हो उसके होने के लिए। एक बार उसका स्वरूप जान लिया जाए , फिर सब शान्ति से चलने लगता है।
पड़ाव को आश्रय मानकर रुक जाने वालों से पूरा विश्व भरा हुआ है। कुछ न कुछ तो दिख ही जाएगा, कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा। पर क्या वो दिखा..? जो दिखना आवश्यक था..! पर क्या वो मिला..? जो मिलना आवश्यक था..!
“अंतिम आश्रय समझ कर , पूरी दुनिया का भ्रम बटोरने में लगे हैं , ये कुछ पल का आश्रय हो सकता है, किन्तु अंतिम आश्रय तो बिलकुल भी नहीं ..।”
शिविका🌿