कांक्रीट के जंगल के लकड़हारे
शोर से घिरे हुए शहर के बीचों-बीच, जहाँ गगनचुंबी इमारतें आसमान को छूती दिखती हैं और रौशनी रात को कई रंगों से रंग देती है, आधुनिक लकड़हारों का पूरा झुंड रहता था। ये पुराने समय के कठोर लकड़हारे नहीं थे, जो घने जंगलों में कुल्हाड़ी चलाते थे। ये लकड़हारे तो कांक्रीट के जंगलों में घूमते थे, उनके औज़ारों की जगह स्मार्टफ़ोन और लैपटॉप ने ले ली थी।
अरुण , एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति, जिसके बाल पतले हो रहे हैं और माथे पर हमेशा झुर्रियाँ रहती थीं ।वह एक टेक स्टार्टअप के लिए काम करता था, जो डेटा के आभासी जंगलों को चीरता रहता था।
उसकी स्वार्थी ज़रूरत?
कॉर्पोरेट की सीढ़ी पर चढ़ते जाना , चाहे इसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़े। वो अपने साथ काम करने वालों को नीचा दिखाता, कितनी भी अच्छी दोस्ती हो, अपने स्वार्थ के आगे कुचल देता और पदोन्नति के लोभ में हमेशा कुछ न कुछ करता रहता था। ऐसा कोई समय नहीं था, जब वो शांत बैठे…
अरुण की पड़ोसी, माया भी उतनी ही निर्दयी थी। वह एक ट्रेंडी कॉफ़ी शॉप चलाती थी, उसकी एस्प्रेसो मशीन दिन भर जैसे कोई गीत गा रही हो, उस मशीन से chainsaw की तरह आवाज़ आती थी ।
उसकी स्वार्थी ज़रूरत?
इंस्टाग्राम पर मशहूर होना। लाइक और फॉलोअर्स की चाहत में ग्राहक सिर्फ़ सहारा थे।
फिर रोहन था, एक स्वतंत्र पत्रकार । उसका लकड़ी काटने का औज़ार कीबोर्ड था। वह शब्दों को काट-छाँट कर लेख बनाता था।
उसकी स्वार्थी ज़रूरत?
वायरल होना…वह ईमानदारी को किनारे रखकर, तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करता।
लेकिन इस कहानी का असली मर्म भूमि के साथ था, जो एक पर्यावरण कार्यकर्ता थी। उसने कुल्हाड़ी नहीं उठाई; इसकी जगह , उसने बीजों को उठाया।
उसकी स्वार्थी ज़रूरत?
वह अपने ग्रह को बचाना चाहती थी। वह हरित नीतियों की माँग करते हुए कॉर्पोरेट दफ़्तरों के बाहर विरोध करती…।
लेकिन, भूमि की अपनी भी कुछ अंधे उपयोग की आदतें थीं, जैसे – कैफ़े में प्लास्टिक के कप या अपने स्मार्टफ़ोन के कार्बन फ़ुटप्रिंट को अनदेखा करना..
जैसे-जैसे मौसम बदलते गए, वैसे-वैसे उनकी लड़ाइयाँ भी बदलती गईं। अरुण ऊपर चढ़ता गया, और उसके सारे संबंध समय के साथ ना होने का निशान छोड़ते गए। माया का कैफ़े फलता-फूलता रहा, लेकिन उसकी अंतरात्मा मुरझा गई। रोहन के लेख वायरल हो गए, लेकिन उसका विवेक क्षीण होता गया और भूमि ? उसने पेड़ लगाए, लेकिन बदलाव का जंगल दूर लग रहा था..!
एक दिन, वे सभी छत पर एक पार्टी में एकत्रित हुए- कांक्रीट के जंगल के लकड़हारे और उनकी स्वार्थी ज़रूरतें। नीचे शहर फैला हुआ था, महत्वाकांक्षा का एक उलझा हुआ जंगल। अरुण शैंपेन पी रहा था, माया फ़ोटो के लिए पोज़ दे रही थी, रोहन अपनी वायरल ख़बरों को देख रहा था, और भूमि सितारों को देख रही थी।
और वहाँ, खनकते गिलासों और चमकते कैमरों के बीच, उन्हें एहसास हुआ: उन्होंने जो पेड़ काटे थे, वे सिर्फ़ प्रतीकात्मक नहीं थे। कांक्रीट के जंगल का अपना पारिस्थितिकी तंत्र था- आश्रय की तलाश करने वाला बेघर आदमी, हरियाली की चाहत रखने वाला तनावग्रस्त ऑफ़िस कर्मचारी, और वह बच्चा जिसने कभी असली जंगल ही नहीं देखा था।
“निराशा में लिपटे हुए शरीर से, मरी हुई बातें रिस रही थीं। ढोंग को तो खत्म होना ही था, जब एक बच्चे ने पूछ लिया कि, चिड़िया कैसी दिखती थी..?”
शिविका 🌿