धरती बदलती हुई तश्तरी है..!
भविष्य सजाए फिरती इस दुनिया की आंखों में, वर्तमान भ्रम जैसी उपस्थिति में रहता है। कल्पना लोक में होने वाली सारी गतिविधियों ने अपने आपको निरंतर सजाया है, ऐसे सजाने से राहत मिलती होगी कि अभी कुछ करना है। बहुत कुछ बाकी है। यह बाकी हमेशा ही रह जाता है, इसकी नियति में पूर्णता है ही नहीं , बाकी रह जाना दिमाग़ की सीमित परिधि में सोची हुई बात है।
किसी ने कह दिया कि उसे सतह के कार्यों को अपना होश नहीं देना, उसका कार्य हो चुका है। दुनिया की आंखों के लिए यह दंभ से भरी आलस की भाषा है। उस राही का कार्य इस दुनिया के खोखले नाटक को जीने का कभी हो ही नहीं सकता था।
प्रकृति का सानिध्य प्राप्त होता है तो सहजता की स्वीकृति से आत्म स्पर्श की अनुभूति प्रबल होती जाती है। कई बार ऐसा भी होता है कि प्रकृति भी अपना स्पर्श नहीं दे पाती। एकांत के छोर सबकुछ खींच लाने में समर्थ हैं। इनके लिए भ्रमण का केंद्र बदल जाता है।
ऊपरी सिरे पर पूरा पहाड़ खड़ा दिखता है किसी अचंभे की तरह। धरती के भीतरी भागों में Plates बदल रही होती हैं, जिससे ऊपरी भाग भी पूरी तरह बदल जाता है। जो परिवर्तिति हो रहा है उसे समझना कठिन है, जो जड़ हो चुका उसके बारे में निष्कर्ष निकाले जाते हैं और सिद्धांतो की रचना की जाती है।
शिविका 🌿