धरती का ज्वर- धरती तप रही है और इसका यह ताप निरंतर बढ़ता जा रहा है। जिन लोगों के बीच हम रहते हैं, अगर उसमें कोई बीमार हो जाए , तो उससे हम हालचाल पूछ ही लेते हैं, है न..! लेकिन, जिस पर सारे आधार टिके हुए हैं, उसके हाल के बारे में बात करते भी मैंने बहुत कम लोगों को सुना है।
धरती की चीख अनसुनी कर देना, कोई बहुत अचंभे की बात नहीं है। हम लोग तो अपने जीवन को कुचलते हुए भी जानें किस ओर चल देना चाहते हैं। आवाज़ें सुनकर कानों पर हाथ रखने की भी ज़रूरत नहीं अब तो, और न ही कुछ देखकर आँख बंद कर लेने की। हम इतने सुन्न हो चुके हैं कि दिखाई देते हुए भी , देखने से वंचित हैं और सुनाई देते हुए भी, सुनने से वंचित हैं।
धरती के बढ़ते ज्वर से, उस पर शरण लेने वाले जीव कब तक बच पाएंगे?
धरती अगर लावा उगलने लगे , तो उस जगह पर शरण तब तक नहीं ली जा सकती, जब तक वो लावा शान्त होकर , सृजन करने वाली परिस्थितियों में नहीं बदल जाता।
“बहुत से धरती प्रेमी चीखते हैं, चीखते हुए धरती में ही समा जाते हैं। पेड़ों से कटकर अपनी जान दे देते हैं, प्रकृति के लिए हथियार उठा लेते हैं। यह सब निराधार तो नहीं..! सुन पाना, सबके बस का कहां रहा है कभी भी..! कोई – कोई उठता है, उन चीखों के साथ अपनी ध्वनि जोड़े, कि बचा लो , इससे पहले कि चीख शान्त होकर तांडव में बदल जाए…!”
शिविका🌿