हर चीज़ है अपनी जगह ठिकाने से!

Antriksh

सबसे बड़ा प्रमाण क्या है ईश्वर के अस्तित्व का?

स्वामी रामकृष्ण परमहंस से जब यह पूछा गया तो उन्होंने उत्तर दिया- “इस संसार से बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है, जिससे कि ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध हो सके।”

बात कितनी ही सरल क्यों न हो, पर इस संसार से बड़ा प्रमाण और कोई नहीं है, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि ईश्वर है। संसार का प्रत्येक परमाणु एक निर्धारित नियम के अनुसार काम कर रहा है। यदि उस नियम में तनिक भी व्यतिक्रम आ जाये तो विराट् ब्रह्माण्ड का अस्तित्व एक क्षण में नष्ट-भ्रष्ट हो सकता है। एक कण के विस्फोट से अनन्त प्रकृति में आग लग सकती है और संसार में अग्नि-ज्वालाओं की लपलपाती जिह्वा सब कुछ चट कर सकती है।

सारे संसार का, समूचे ब्रह्माण्ड का अस्तित्व ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करता है। ब्रह्माण्ड शब्द – ब्रह्म और ‘अण्ड’ इन दो शब्दों से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है, जिसमें अगाणित विराट् अण्ड अस्तित्वमान हों। वैज्ञानिक यह मानते है कि आकाश में स्थित समस्त पिंड एक शक्ति को केन्द्र मानकर उसके चारों ओर चक्कर लगा रहे है। ये सभी पिंड अण्डाकार वृत में घूमते है, इसी कारण वैज्ञानिक इन घूमने वाले समस्त पिंडो को ब्रह्माण्ड कहते हैं।

पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ भी जीवन विद्यमान है, उसका जीवन आधार सूर्य से प्राप्त होने वाली ऊर्जा है। 13 लाख 92 हजार किलोमीटर व्यास वाला सूर्य का गोला 150 million किलोमीटर की दूरी से पृथ्वी पर अपनी प्रकाश-किरणें फेंकता है, जो 8 मिनट में पृथ्वी तक पहुँचती हैं। दिनभर में यहाँ के वातावरण में इतनी सुविधाएँ इन प्रकाश-किरणों से एकत्रित हो जाती है कि रात आसानी से कट जाय। दिन-रात के इस क्रम में एक दिन भी यदि अन्तर पड़ जाये तो जीवन-सत्ता सकंटाग्रस्त हो सकती है और जिस ऊर्जा-स्त्रोत सूर्य से पृथ्वी वासी जीवनी- शक्ति प्राप्त करते है।

वैज्ञानिकों की भाषा में सूर्य-तप्त गैसों का विशाल गोला है। नदी के तेज प्रवाह में जिस प्रकार भँवर पड़ते है, उसी प्रकार सूर्य में चलती रहने वाली तप्त-ज्वालाओं के अन्धड़ भँवर पैदा करते हैं। ये भँवर भी पृथ्वी पर जीवन-सत्ता को बनाये रखने में सहयोगी होते हैं।

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सूर्य के लिए पृथ्वी समुद्र में एक बू़ंद का सा नगण्य अस्तित्व रखती है। जिस प्रकार एक गेंद के चारों और मक्खी नाचती हुई दिखाई दे, सूर्य यदि गेंद के बराबर हो तो पृथ्वी भी इस मक्खी से अधिक बड़ी नहीं होगी। फिर भारत में उत्तर- प्रदेश के एक किसान के घर में जी रही चींटी का सूर्य के सामने क्या अस्तित्व हो सकता है। लेकिन वह भी सूर्य से प्राप्त ऊर्जा के द्वारा अपने दिन मजे से काट लेती है।

पृथ्वी और सूर्य की तुलना गेंद और मक्खी से की जा सकती है। पृथ्वी से भी छोटे और बड़े कितने ही ग्रह-उपग्रह अपने इस सौर-मण्डल में विद्यमान है। सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की तरह घूमने वाले ग्रह, उपग्रह (चन्द्र) उल्का और धूमकेतु ये सब मिलकर सौर-मण्डल कहलाते हैं। अभी तक सौर-परिवार के करीब 100 सदस्यों के बारे में ही पता लगाया जा सका है।

ब्रह्माण्ड में ऐसे अनेकों सौर-मण्डल हैं और विस्तृत ब्रह्माण्ड में-उन्नत व अनंत अन्तरिक्ष में अपने सौर-मण्डल की वैसी स्थिति है, जैसी कि दस फीट लम्बे और दस फीट चौड़े सफेद कागज पर एक बिन्दु की। यदि कोई कहे कि मेरी आँख का आँसू समुद्र में खो गया है तो यह कहना जितनी छोटी-सी बात होगी, भला समुद्र की अगाध जल-राशि में एक बूँद आँसू की क्या बिसात ? वैसी ही स्थिति ब्रह्माण्ड में सूर्य की है। सूर्य से बड़ा तारा (A red supergiant star) UY Scuti जिसे महादानव क्रम के आगे वाले स्थान पर रखा जा सकता है, उससे 17 हजार गुना बड़ा है। उससे बड़ा दूसरा तारा Antares सूर्य से 10,000 गुना अधिक चमकीला है।
सूर्य जैसे इसके अंदर अनगिनत सूर्य समा सकते हैं गोलों को अपने भीतर आसानी से बिठा सकता है।

सूर्य और पृथ्वी से बड़े ही नहीं, छोटे सूर्य और ग्रह भी है। किन्तु यह सभी छोटे- बड़े सौर-मण्डल और ग्रह-उपग्रह विराट् ब्रह्माण्ड में निद्वन्द्व विचरण कर रहे है।

विराट् ब्रह्माण्ड का थोड़ा-सा अनुमान इन आँखों से तों यों ही देख सकते है, जबकि वैज्ञानिक यन्त्रों से जितने तारे देखें जा सके है, उनकी गणना का अभी तक कोई हिसाब नहीं लगाया जा सकता है।

ज्येष्ठ और मार्गशीर्ष माह में आकाश में एक क्षितिज की ओर सफेद पट्टी- सी दिखाई देती है। यह आकाश-गंगा जैसे असंख्यों तारों के गुच्छक और तारों के बादल है। बादलों में जिस प्रकार पानी की बूँदे होती है, उसी प्रकार इन तारा-मेघों में भी दूरबीन की सहायता से असंख्यों तारे देखे जा सकते हैं। दिखाई देने वाले तारा-मण्डलों की ही यात्रा करने की योजना बनाई जाये और 800 मील प्रति घंटा उड़ने वाले विमान यात्रा पर निकला जाये तो एक बार में दिखाई देने वाले तारों को छूकर आने में ही कम से कम साढ़े चार करोड़ वर्ष लग जायेंगे।

सर्वाधिक चमकने वाले तारों की संख्या 20 है इनमें (Sirius A) व्याध नाम का तारा सर्वाधिक दीप्तिमान सूर्य की तुलना में यह तारा 21 गुना अधिक प्रकाशित है। कल्पना की जाये कि परमात्मा सूर्य के स्थान पर यदि व्याध (Sirius A) तारे को नियुक्त कर दे और वह धरती को प्रकाश देने लगे तो पृथ्वी का क्या अंजाम होगा?

आकार की दृष्टि से भी तारों का वर्गीकरण किया जाता है। बड़े आकार वाले विराट् कहे जाते है और छोटे आकर वाले वामन कहलाते है। विराट् से भी जो अधिक बड़े है, उन्हें अति विराट् कहा जाता है जो सूर्य की तुलना में तीस करोड़ गुना अधिक बड़ा है। वामन केवल नाम के ही वामन है, अन्यथा वे भी भगवान विष्णु के वामन अवतार की तरह कम आर्श्वयजनक नहीं है।

भार की दृष्टि से ये तारे सबको मात दे सकते है। यदि वामन तारे से चार घनफुट मिट्टी खोद कर लाई जाये और उसे पृथ्वी पर तोला जाये तो इतनी मिट्टी का वजन ही 224 टन होगा। वहाँ यदि पेड़-पौधे होते होंगे और गुलाब के फूल जैसा उसी आकार कोई फूल लगता होगा, तो उसे तोड़ पाना तो दूर रहा, उसकी एक पंखुड़ी भी मनुष्य नहीं उठा सकेगा। गुलाब के फूल के बराबर वाले फूल को पृथ्वी पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर उठाने के लिए क्रेन की जरुरत पड़ेगी?

इतने महान् आश्चर्यों से भरा यह विश्व ब्रह्माण्ड अपने ढंग से व्यवस्थित रीति से चल रहा है। ईश्वर होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या कहा जा सकता है। क्योंकि यह संसार लाखों करोड़ो वर्ष से चल रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। इस तथ्य को थोड़ा इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि सूर्य अपने केन्द्र में 16000000 डिग्री सेन्टीग्रेड है।

पृथ्वी पर उसकी किरणें आठ मिनट में पहुँच जाती है और वे अपने साथ प्रचंड गर्मी साथ लिए चलती है। यदि उनके साथ आने वाली गर्मी पृथ्वी पर सीधे-सीधे पहुँचने लगे तो पृथ्वी पर एक चींटी और घास का एक तिनका भी न दिखाई दे। समुद्र का सारा पानी भाप बनकर उड़ जाय। लेकिन ऐसा नहीं होता, क्योंकि पृथ्वी के ऊपर आयनमण्डल की पट्टियाँ न चढ़ी होतीं तो पृथ्वी कभी की जलकर राख हो गई होती।

इसके अलावा सूर्य पृथ्वी की ओर थोड़ा भी पास खिसक आये तो ध्रुव-प्रदेशों की बर्फ पिघल सकती है और सारी पृथ्वी पर जल-प्लावन का दृश्य प्रस्तुत हो सकता है। जरा भी पास खिसक आने पर इतनी गर्मी पैदा हो सकती है कि पृथ्वी पर विद्यमान प्राणी कड़ाही के उबलते हुए तेल में तले जा रहे पकाडौं की तरह पक कर जल जाय और यदि सूर्य अपने स्थान से पृथ्वी की दूरी से थोड़ा भी हटकर पृथ्वी से जरा भी दूर चला गया, अपने स्थान से पाँच-सात फीट भी पीछे हट गया तो पृथ्वी पर समुद्र तो क्या मिट्टी तक जमकर बर्फ बन सकती है।

ऊपर की पंक्तियों में ग्रह-नक्षत्रों और ब्रह्माण्ड के विस्तार का थोड़ा-सा उलेख किया गया है, ये सभी सौर मंडल और ग्रह-नक्षत्र अपने क्षेत्र में रहते हुए ही अपने क्रियाकलाप चलाते है। थोड़े भी अपने स्थान से इधर-उधर होने पर सर्वनाश हो सकता है। वे अपने स्थान और क्षेत्र में रहते हैं, इसी में सन्तुलन और व्यवस्था बनी हुई है।

सूर्य पृथ्वी को ठीक उसी प्रकार खींचकर बाँधे रहता है, सूर्य अपनी इस शक्ति से पृथ्वी और अन्य ग्रह-उपग्रहों को भी खींचे रखता है। यही कारण है कि सूर्य अपन सौर-मंडल का नेता, संचालक, अनुशास्ता कहा जाता है।

यह सारे तथ्य बताते हैं कि ग्रहों की स्थिति और व्यवस्था, ब्रह्माण्ड का संचालन अत्यन्त बुद्धिमता पूर्वक किया जा रहा है। व्यवस्था या संचालन करने वाली उस शक्ति को नियम, शक्ति, सन्तुलन अथवा कुछ भी कहा जाये। अन्ततः यह मानना पड़ेगा कि उसका अस्तित्व ही जीवन का और दृश्य- अदृश्य सत्ता का आधार है, उसे ही परमात्मा कहा गया है।

उपरोक्त तथ्य इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि संसार को बनाने और चलाने वाला अद्भुत गणितज्ञ, विलक्षण इंजीनियर, सुयोग्य चिकित्साधिकारी, मौसमवेत्ता और अप्रतिम वैज्ञानिक है, उस सत्ता के अस्तित्व से इन्कार करना अपने आप को जीवित मानने से इन्कार करने जैसा है।

क्योंकि जीवन के आविर्भाव से ही उसका नियामक सत्ता का पता चल जाता है। जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए इस सृष्टि में ऐसी व्यवस्था है कि वे सब सरलातापूर्वक पूरी होती रहें। साँस लिए बिना प्राणी एक पल भी जीवित नहीं रह सकता, सो प्रचुर मात्रा में हवा भी उपलब्ध हैं। इसके बाद जल की आवश्यकता है, वह भी थोड़ा-सा प्रयत्न करने से प्राप्त हो जाता है।

अन्न, हवा और जल के बाद तीसरे महत्वपूर्ण क्रम की आवश्यकता है, सो उसके लिए साधन न जुटा सकने वाले प्राणियों के लिए प्रकृति में फल-फूल की व्यवस्था है सो बुद्धिधारी प्राणी थोड़े प्रयत्नों से अपनी यह आवश्यकता पूरी कर लेते है। इसके बाद समस्त उपादान आवश्यकता के अनुपात से प्रयत्न और पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त होते रहते है। इन सार्वभौम आवश्यकताओं की पूर्ति बिना संचालक, व्यवस्थापक के कैसे सम्भव हो सकती थी?

इस विस्तार और सुव्यवस्था क्रम से इन्कार नहीं किया जा सकता। यह अस्वीकार करने का कोई भी कारण नहीं है कि सृष्टि, जीवन या ब्रह्माण्ड के कण-कण में, अणु-अणु में अनुशासन और व्यवस्था बनाकर रहने तथा उसे तोड़ने पर दंड देने वाली व्यवस्थापिका नियामक सत्ता का अस्तित्व भी स्वीकार करना पड़ेगा।

विरक्त 🍂

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