राहों से गुज़रते हुए कई गांव मिले
उन गांवों में खुले किवाड़ मिले
जिन के भीतर थीं झांकती आंखें
उन आंखों पर टिके कई सवाल मिले…!
मैंने कई लोगों को गुज़रा हुआ देखा है। वो ऐसे दिखते हैं जैसे कोई बीता हुआ समय हो। वो वहीं रुक गए हैं जहां उन्हें जीवन के किसी छोर पर गतिहीन अनुभव हुआ होगा। समय तो अपनी गति से बढ़ता चला गया , पर उन्हें थोड़ा भी अंदेशा नहीं हुआ कि वो रुक गए हैं..!
पूरे जीवन में घूमते हुए ऐसे कई चेहरे मिल जायेंगे, जिनमें चेतना का अनुभव नहीं दिखता। सतह की बड़ी से बड़ी छलांग भी , समय की गति नहीं रोक सकती। वैसे ही जैसे, उम्र की उपस्थिति ज्ञान के मार्ग में एक कोरा आधार है।कम आयु का दिखने वाला एक मानव शरीर भी ज्ञान की आकाशगंगाओं में घूमता दिख सकता है। वहीं दूसरी ओर ,अधिक आयु का दिखने वाला मानव शरीर भी , जड़ता के रोग से ग्रसित दिख सकता है।
जड़ता का रोग आख़िर क्या है..?
जड़ हो जाना , अर्थात रुक जाना। यहां पर समय और आयु की बात नहीं हो रही। यह पूरी तरह से जीवन के आने- जाने वाले विचारों और अनुभवों के इर्द – गिर्द घूमता है। समय के प्रवाह में, जीवन से कई अनुभव टकराते हैं। आख़िर, जीवन है तो अनुभवों का ही एक खांचा। अनुभवों के पिरामिड पर जीवन चक्कर काटता दिखता है, लेकिन असल बात कुछ और होती है।
इसे ऐसे भी समझा जा सकता है, जैसे कि अनुभव हुआ पर उसे जाना ही नहीं गया..उसे किसी अलग दिशा में मोड़ दिया गया। साक्षी भाव यहां पर बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। अनुभव करने वाला व्यक्ति अगर साक्षी भाव से कुछ देख सुन रहा है, तो उसका गतिशील अनुभव पिरामिड निरंतर अपनी दिशा में घूमता रहेगा। लेकिन, अगर वह अनुभव को, अपनी ” सम्यक दृष्टि” नहीं दे पाया , तो वह जड़ परतों का पिरामिड बना लेगा।
“गतिशील अनुभवों का पिरामिड भी सीढ़ी जैसा ही दिखेगा, ध्यान से देखने समझने पर, लेकिन जड़ परतों का पिरामिड एक निरंतर बढ़ने वाले दवाब जैसा है। जिसमें सब रुका हुआ है, गतिहीन है..।”
शिविका 🌿