सांझ से भोर के मध्य का समय कितना शांत होता है। कितनी ही संवेदनाओं को दबाए हुए, सोचते हुए, कुछ कल की आशा में, तो कुछ नए दिन की शुरुआत के लिए बातें बुनते हैं। हाँ, बुनते ही तो हैं, झूठ का साम्राज्य बुनते हैं!
ये बातें ही तो हैं, सच से इनका सामना अभी तक नहीं करा पाए।इनका तब तक महत्व नहीं, जब तक इन्हें कर्मों में न ढाला जाए। किसी भी गुज़रते पल का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है, सिवाय हमारी खोखली अवधारणाओं के। ये निरंतर हमें क्षीण कर रहीं हैं और हम अपनी ही छाया का प्रतिकार कर रहे हैं। अपनी बातों पर अडिग रहना भी साहस है।
मेरे बाबा कहते थे कि मैंने जीवन भर कर्म को पकड़ कर रखा, क्योंकि जीवन पकड़ना संभव नहीं है। कर्म का आंकलन किया जा सकता है लेकिन जीवन को किसी भी छोर से बांधा नहीं जा सकता। हम अपने आपको कहीं बांधकर सोचते हैं कि बस अब ठिकाना मिल गया। लेकिन सच तो यह है कि आंतरिक साहस की कमी के कारण यथार्थ को स्वीकार ही नहीं करना चाहते। जो कर्म जीते हैं वो मुक्त हैं, जो स्वार्थ कर्म जी रहे हैं वो फंसे हुए हैं एक घुटन में, एक भारीपन में।
“जैसे आकाश की कोई सीमा नहीं होती, यह बात न भी कही जाए तो आकाश को कोई अंतर नहीं पड़ेगा। वो कथ्य से दूर असीमित ही है। वैसे ही मौन है, असीमित अभिव्यक्तियों को निरंतर आश्रय देता है। दुःखद यह है कि संसार मौन अभिव्यक्तियों को आश्रय देना आवश्यक नहीं समझता।”
शिविका 🌿