कुछ देर और सही…!

कुछ देर और सही…!

कुछ देर और सही…!

कुछ परछाइयों ने स्वप्न में , एक व्यक्ति का गला पकड़ लिया।आदमी ज़ोर – ज़ोर से किसी से बात कर रहा है। “मैंने कुछ नहीं किया , मैंने कुछ नहीं किया…”

अचानक से उठ बैठता है। वो आदमी पसीने में तर बैठा है। उसकी आंखों में डर है, जैसे अतीत की कोई बात सामने आ गई हो। वो दीवार पर अपनी परछाईं देखता है और कहता है —” हम ज़्यादा दिन तक छिप नहीं पाएंगे । ” 

जाग जाना कई तरह से घटित होता है। अचानक से आंखें खुल जाएं जागृति की ; और सारी परछाइयों का सच दिखने लगे। सबसे पहले तो बदहवास होकर व्यक्ति दुनियां में जाकर अपने विचार रखने का नगाड़ा पीटना चाहेगा। लेकिन, जल्दी ही उसे ज्ञात हो जाता है कि, जागृति वो अनकहा अनुभव है जिसे साझा नहीं किया जा सकता।

आप कितने भी प्रकार बना लें बातों को गढ़ने के , लेकिन इसे कहा ही नहीं जा सकता। मैं लेखन को आधार बनाकर मंथन के कुछ शब्द दे तो रही हूं। लेकिन मैं जानती हूं, यह अब भी अनकहा है और हमेशा रहेगा।

“शायद एक समय ऐसा आए कि मैं मौन अपना लूं। भाषा के किसी भी प्रकार को व्यक्त करने से। इसलिए अपने अनुभव को एक स्पर्श के साथ , दुनिया में ही छोड़ देना उत्तरदायित्व का ही भाग है। मेरा हमेशा से मानना है कि, मैं केवल एक माध्यम हूं, जिसका उपयोग तो हो सकता है, लेकिन संचय नहीं हो सकता। दुनिया की ऊब कई तरह से आकर घेरती है, लेकिन अपने हिस्से की धरती को बार – बार बताना पड़ता है कि बस…जा ही तो रहे हो। कोई बात नहीं, थोड़ा और..!”

शिविका🌿

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