क्या वन रोए, अपने लिए..?

क्या वन रोए

क्या वन रोए, अपने लिए..?

हम वनों में गए, अपनी शान्ति की इच्छा में,
क्या वन रोए,भीतर पैर रखती इस अशांति के लिए..?

विलुप्त हुईं , कई जीव प्रजातियां और उनके आवास,
क्या वन रोए, उनके अदृश्य हो जाने के लिए ..?

उस निर्जन पर थोपी गईं , शोर मचाती नुकीली ध्वनियां,
क्या वन रोए, मानव स्वार्थ के इस बहरेपन के लिए..?

आवश्यकता अनुसार, अनवरत जलाते गए उन्हें,
क्या वन रोए, इस अश्रु अग्नि की शीतलता के लिए..?

उसके अंधेरों को , अनावश्यक रौशनी से धकेला गया,
क्या वन रोए, अपने जीवों की सहमी पुकार के लिए..?

पूरी दुनिया चिल्ला पड़ी …प्रकृति बचाओ, प्रकृति बचाओ..!
सबको डर है कि अगर प्रकृति ना बची, तो यह कैसे बचेंगे?

इस जगत के कई चेहरे हैं ,
जिन पर भ्रम के पहरे हैं…।

विश्व के नाटक में हर दिन अनगिनत कड़ियां जुड़ती जाती हैं। यह कुछ ऐसा ही है , जैसा हम अपने जीवन में प्रतिदिन कुछ ऐसी बातों को जोड़ते जाते हैं, जिनका महत्व नहीं होता, बस कहने के लिए कह देते हैं।

“वन रोए, उनके लिए,
जो लिपट कर कट गए उनसे…!”

शिविका 🌿

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