महर्षि पतंजलि
अध्यात्मवेत्ताओं की दुनिया के आइंस्टीन हैं, महर्षि-पतंजलि । उनकी अभिवृत्ति और दृष्टि वही है, जो एकदम विशुद्ध वैज्ञानिक मत की होती है। पतंजलि बुनियादी तौर पर वैज्ञानिक हैं, जो नियमों की भाषा में सोचते-विचारते हैं और अपने निष्कर्षों को रहस्यमय संकेतों के स्वर में नहीं, वैज्ञानिक सूत्रों के रूप में प्रकट करते हैं। इन्हीं के कारण प्रत्याहार के संबंध में उनके सूत्र अद्भुत हैं। वे कहते हैं कि प्रत्याहार है इंद्रियों का राग-द्वेष से विमुक्त हो जाना। राग-द्वेष का थम जाना एक बड़ी घटना है।
योगी ही किसी बड़ी घटना को संपादित करता है और इस घटना को संपादित करने से पहले उसे सर्वप्रथम संसार और उसके परे जिस किसी से वह अनुरक्त होता है या विरक्त होता है, उन चीजों से उसे बाहर निकलना होता है। उसे अपनी इंद्रियों को इन विषयों से विमुक्त करना होता है।
प्रत्याहार सहज नहीं है और योगाभ्यासी साधक के लिए अत्यंत आवश्यक घटक भी है। योगी का संसार अपने इस संसार से भिन्न एवं जुदा होता है। उसके नीति-नियम हमारे नीति-नियमों से अलग होते हैं। उस संसार में राग-द्वेष आदि विषयों का किंचिन्मात्र स्थान नहीं है। ये सब बातें यहाँ चल सकती हैं, बल्कि यहाँ इन्हीं का जमघट है। इंद्रियों की भोगलिप्सा से सराबोर यह जगत योगाभ्यासी साधक को गुड़ में भिनभिनाती मक्खियों के समान प्रतीत होता है।
इंद्रियाँ
उसे अपनी इंद्रियों के इन विषयों को दूर, बहुत दूर ले जाकर चित्त के महोदधि में छोड़ देना पड़ता है। वह अपनी इंद्रियों को विषयों से इतना विमुक्त कर देता है कि फिर इंद्रियाँ उन विषयों की ओर उन्मुख नहीं होतीं; क्योंकि उन्हें एक नए जगत की मनोहारी झाँकियाँ जो मिल जाती हैं! इंद्रियों को उच्चस्तरीय विषय मिल जाता है, तब वे निम्नस्तरीय विषय में विचरना एवं चिपकना छोड़ देती हैं।
इंद्रियाँ अपने विषय में विचरना छोड़ देती हैं तो प्रत्याहार घट जाता है। जैसे जिह्वा का विषय है स्वाद। जिह्वा का स्वादरहित हो जाना प्रत्याहार है; अर्थात जब हमें जो मिल जाए रूखा-सूखा या फिर मेवा-मलाई, कोई शिकवा-शिकायत नहीं। प्रत्याहार सध जाए तो वह स्वाद के लिए नहीं भटकेगी। वह यह नहीं तलाशेगी कि जिस भोजन में उसे स्वाद मिलता है, वही मिले।
जीवन की आधी से अधिक ऊर्जा तो इसी में व्यय हो जाती है कि क्या खाना और कब खाना है, कितना खाना है और क्यों खाना है, इसकी कहाँ चिंता है, परंतु जब जिह्वा का प्रत्याहार सध जाता है तो स्वाद गौण हो जाता है और स्वास्थ्य प्रमुख। बात उलट जाती है, इसीलिए तो इसे प्रति आहार (प्रत्याहार) कहते हैं, मतलब कि ठीक उलटी चाल।
प्रत्याहार आसक्ति से रहित होना है। आसक्ति हमें बाँधती है और यह जितना बाँधती है, उतना ही सताती भी है। आसक्ति हट जाए तो इंद्रियाँ स्थिर होने लगती हैं, फिर मन भी शांत होने लगता है। आसक्ति के मोहपाश ने राजा भर्तृहरि को गहरा बाँध रखा था। विवेकवान, मेधावान भ्राता विक्रमादित्य के तमाम यत्नों के बावजूद राजा भर्तृहरि पिंगला के रूप-लावण्य में इस कदर खो गए थे कि उन्हें परम सुंदरी पिंगला के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था।
उनकी इंद्रियाँ अपने विषयों में सघन रस से ओत-प्रोत थीं। काम-वासना के इस नशे ने उनकी इंद्रियों को उन्मत्त बना दिया था और इंद्रियाँ भला कभी अपने विषयों से तृप्त हुई हैं! यह तो ऐसी आग है, जो सतत भड़कती रहती है। राजा भर्तृहरि इंद्रियों की इसी आग में झुलस रहे थे।
महारानी पिंगला के चंचल मन के एक चारित्रिक दोष ने राजा भर्तृहरि को इतना क्षुब्ध किया कि उनका मन अपने विषय से विमुख हो गया। वे गोरखनाथ के शिष्य बन गए, परंतु गोरखनाथ ने उन्हें प्रत्याहार सधने से पूर्व शिष्य स्वीकार नहीं किया। उन्होंने राजा को पिंगला से माता मानकर भीख माँगने को कहा। राजा का प्रत्याहार नहीं सधा था। वे अनुराग से विमुख हुए थे, द्वेष से नहीं।
उन्हें दोनों से मुक्त होना था, पर इस साधना में वे पागल-सा उन्मत्त होकर जंगलों में भटकते थे। पिंगला को माँ नहीं मान पा रहे थे, उनका प्रत्याहार नहीं सध पा रहा था, परंतु गुरु गोरखनाथ की कृपा से राजा भर्तृहरि योगी भर्तृहरि बने। उनका प्रत्याहार सधा और उन्होंने पिंगला में माता भगवती का रूप देख लिया।
प्रत्याहार
आसान नहीं प्रत्याहार की साधना, परंतु इसका कोई विकल्प भी नहीं है। पतंजलि ने इसकी तकनीक दी है कि कैसे प्रत्याहार को साधा जाए। वे कहते हैं कि वितर्कवाद में प्रतिपक्ष की भावना अर्थात इंद्रियाँ विषय में आसक्त हों तो उनकी धैर्यपूर्वक काउन्सिलिंग करना चाहिए। विधेयात्मक तर्क, सुविचार एवं श्रेष्ठ चिंतन से उस आसक्ति को क्रमशः दूर करने का प्रयास करना चाहिए। इसी को साइकोलॉजी में ‘कोग्निटिव थेरेपी’ के नाम से जाना जाता है। इसमें नकारात्मक चिंतन का सकारात्मक तर्कों द्वारा उन्मूलन किया जाता है। प्रत्याहार में भी आसक्ति को दूर करने के लिए इंद्रियों को श्रेष्ठ विषयों के प्रति उन्मुख किया जाता है और जब यह सध जाता है तो आसक्ति स्वतः समाप्त हो जाती है।
संसार में विषय के आकर्षण प्रबल हैं। ये इंद्रियों को ललचाते हैं। विषयासक्त इंद्रियाँ मन को अपनी ओर आकर्षित करती हैं; जबकि मन इंद्रियों का राजा है। उसका तो इंद्रियों पर अधिकार होना चाहिए, पर इंद्रियों के दबाव में जब मन आ जाता है तो सारा खेल उलट जाता है। ऐसी अवस्था में श्रेष्ठ विचारों से इस उलटे क्रम को उलटकर सीधा करने का प्रयास करना चाहिए।
यह प्रक्रिया लंबी अवश्य है, परंतु योगाभ्यासी साधक के लिए इसके अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है। मन को साधने की पहली साधना प्रत्याहार है। विषयों में आसक्त मन चेतना के महासागर में छलाँग कैसे लगा सकता है, इसलिए राजयोग के महायोगी स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि विषय को नहीं, विषय की आसक्ति को छोड़ना है। आसक्ति छूट जाए तो प्रत्याहार सध जाता है।
भगवान बुद्ध पहले ऐसे महायोगी थे, जिनके भिक्षुओं में राजकुमारों एवं राजाओं की संख्या बहुलता से थी। उन्होंने इन सबको पार्थिव ऐश्वर्य से एक बड़े ऐश्वर्य के दर्शन कराए थे। बड़ी चीज मिल जाने पर छोटी चीज छूट जाती है। यही है प्रत्याहार। इंद्रियों एवं मन को अपने विषय से हटाकर एक महत् विषय में लगा देना ही प्रत्याहार है। प्रत्याहार में संबंध बना रहता है, परंतु यह संबंध उच्चस्तरीय हो जाता है।
इसके लिए लघुता से विभुता की ओर चलना होगा। सतत दर्शन (Philosophy) का अध्ययन एवं स्वाध्याय से विषय को परिवर्तित किया जा सकता है। धैर्य एवं सतत प्रयास से मन एवं इंद्रियाँ स्थिर होती हैं। प्रत्याहार सधने के पश्चात ही ध्यान के सागर में गहरे गोते लगाना संभव होता है। प्रत्याहार योग-साधना का प्रथम सोपान है। इसे तो पार करना ही पड़ेगा।
विरक्त 🍂