मानव का ताप बढ़ रहा है..!
जैसे – जैसे गर्मी बढ़ रही है, लोगों को जंगलों की याद आने लगी है। इंसानी दिमाग़ की आदत है, तब तक टालते रहो, जब तक आफ़त घर के बाहर आकर न बैठ जाए।
पेड़ों की बातें करने लगे हैं, और बातों में पेड़ उगाए जा रहे हैं। जैसे पूरी दुनिया प्यार बांटती है, वैसे ही पेड़ बांटे जा रहे हैं। बढ़ते पारे के साथ जो चिंता अभी देखने को मिल रही है, इसने सार्वजनिक चर्चा का रूप तो ले लिया है। लेकिन, फिर भी इसकी असल कहानी से , यह चर्चाएं बहुत दूर हैं।
मूर्खों की एक पूरी भीड़ यात्राओं के नाम पर सबसे संवेदनशील जगहों पर पहुंच कर शोर करने से भी पीछे नहीं हट रही और फिर भी सब कह रहे हैं कि बात अभी संभाली जा सकती है।
कभी – कभी, फालतू तर्क करने से अधिक यह देख लेना चाहिए कि कुछ विषयों पर तर्क- वितर्क नहीं, समझदारी से सोचा समझा जाता है। शरीर के भीतर कुछ भी कूड़ा डालते जाओ, एक दिन वो शरीर को किसी काम का नहीं छोड़ता। प्रकृति को अगर एक जीवित संरचना समझ पाएं तो जानेंगे कि, वर्षों से उसका जो दोहन किया जा रहा है। वो अब बुरी स्थिति में पहुंच चुका है।
“मानव की हाहाकार इसलिए शुरू हुई है ,क्योंकि बात अब इनके सिर के ऊपर आग उगल रही है। कितने जीव नष्ट हो गए, उनकी चीख सुनी ही नहीं गई। तो मानव कैसे सोचकर बैठा है, कि इसकी चीख अब प्रकृति सुनेगी..!”
शिविका 🌿