मायापुरी नगरी, लुटेरा बसे सगरी…!

मायापुरी नगरी, लुटेरा बसे सगरी…!

मायापुरी नगरी, लुटेरा बसे सगरी…!

रात के समय पहरेदारी  के लिए , ‘जागते रहो ‘ शब्द का बहुत प्रयोग किया जाता था। वो ज़ोर- ज़ोर से चिल्लाते थे , जागते रहो, जागते रहो। पर उसके बाद भी, बहुत सारी ऐसी घटनाएं हुईं जिनमें, जागते रहो बोलने के बाद भी कोई जागा नहीं। बल्कि सोता रह गया, उस सोते रहने में सब चोरी हो गया। इसे सांकेतिक रुप से देखा जाए तो यह चेतना की बेहोशी को भी बताता है। अंधेरे में पड़े हुए चित्त को, चेतना की ध्वनि सुनाई नहीं देती।

कई गीतों में सांसों को हीरा मानकर कहा गया है कि -‘तेरी हीरा जैसी सांस बातों में बीती जाए.. अरे मन! कृष्ण कृष्ण बोल’…।

निर्गुण धारा के गीतों का भी, हर भाषा में गायन हुआ है। क्षेत्रीय भाषाओं में भी इन गीतों की भरमार है। भोजपुरी में एक बहुत सुंदर निर्गुण गीत है, ‘मायापुरी नगरी, लुटेरा बसे सगरी’…ऐसे ही एक अन्य गीत है..

एक दिन नदी के तीरे जात रहनी धीरे- धीरे

हम आंखी देखनी, सुंदर शरीरिया अगिया में ,

जरेला हे राम…

“इन लोकगीतों में चेतना को केंद्र में रखकर, संसार के खेल को बार – बार बताया गया है। समय के साथ ये ओझल होते गए और इनकी जगह खोखले अर्थविहीन शब्दों ने ले ली..”।

शिविका🌿

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