नालन्दा की चीख

नालन्दा की चीख

मैं कभी नालंदा नहीं गई। इसका केवल एक कारण है, कि मुझे हमेशा लगता है जैसे उसे देखकर मैं बहुत कुछ जान जाऊंगी। उसके साथ ही अपने अंदर एक चीख अनुभव करके रोने लगूंगी।

गर्व करने के लिए उस जगह का होना पर्याप्त नहीं है। जब आप अपनी चीज़ों को संभाल नहीं पाते, उसका पर्याय खो देते हैं । उसके बाद गर्व करने जैसा कुछ नहीं बचता।यह बिलकुल वैसा है, जैसे हम अपनी संस्कृति पर गर्व करते हैं लेकिन उसे धारण करने का आधार हमने बाहरी बना दिया है।

नालन्दा की चीख यहां तक सुनाई देती है, जैसे जब उसे जलाया गया..मैं भी वहीं थी ,किसी ज्ञान साधक के रूप में।आंतरिक ऊर्जा का कोई जेंडर नहीं होता, वो अनुभूति की सर्वोच्चता पर कार्य करती है।

नालन्दा की चीख

मैं कई मायनों में एक खोया हुआ जीवन जी रही हूं, संकेत जब सूक्ष्मता पकड़ लें, तो बाकी दुनिया बस एक जीवनयापन का आधार बनकर रह जाती है। आप केवल आंतरिक जी रहे होते हैं, बाहर का ढोंग सबके लिए नहीं होता।

ज्ञान को जला देना इस धरती की विनाशकारी घटनाओं में से एक है। मानव के मरने का शोक किया जाता है, लेकिन नालन्दा के जलने पर..? काश कई प्रश्न उठते ..!

“आज इधर – उधर से हम, लीपा -पोती का ज्ञान लेकर पढ़ रहे हैं और सोच रहे हैं कि बहुत अर्जित कर लिया, लेकिन उन जली हुई पुस्तकों में जो खज़ाना था, वो अब नहीं मिलेगा। बेहोशी के चरम पर अग्रसर रहे सतही लोगों के बीच नालंदा, बस एक विषय है, जिसे किसी ने जला दिया था। काश वो आत्मा में होता..काश…!”

शिविका 🌿

Please follow and like us:
Pin Share