पानी बाबा

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इन दिनों विश्व पानी की समस्या से जूझ रहा है।अधिकांशत: लोग अपनी आवश्यकता से बहुत अधिक पानी का प्रयोग कर रहे हैं। अत्यधिक भौतिकता के कारण पर्यावरण को बहुत हानि हो रही है। हिमनद सिकुड़ रहे हैं और गंगा-यमुना जैसी सदानीरा नदियाँ सूख रही हैं। कुछ समाजशास्त्रियों का मत है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा। जहाँ पानी पिलाना पुण्य समझा जाता था, उस भारत में आज पानी पैकेट से लेकर बोतलों में बेचा जा रहा है।

देखते- देखते यह अधिक विकराल रूप लेता जा रहा है…हाल की वर्षों में कितनी बार ऐसे तथ्य सामने आए जिसमें भूमिगत जलस्तर कम होता नज़र आया। कहीं- कहीं पर तो यह पूरी तरह समाप्त भी हुआ है।

ऐसी समस्याओं की ओर अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं का ध्यान गया। उनमें से एक हैं। पर इनमें से भी एक ऐसे हैं, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन ही जल संरक्षण और इसकी देखरेख में समर्पित कर दिया।

‘पानीबाबा’ के नाम से प्रसिद्ध राजेन्द्र सिंह, जिनका जन्म जिला बागपत (उ.प्र.) के एक गाँव में छह अगस्त, 1956 को हुआ। उन्होंने आयुर्वेद में स्नातक तथा हिन्दी में एम.ए. किया। नौकरी के लिए वे राजस्थान गये; पर नियति ने इन्हें अलवर जिले में समाजसेवा की ओर मोड़ दिया। राजेन्द्र सिंह अपने छात्र जीवन में ही जयप्रकाश नारायण के विचारों से प्रभावित थे। उन्होंने 1975 में राजस्थान विश्वविद्यालय परिसर में हुए अग्निकाण्ड के पीड़ितों की सेवा के लिए ‘तरुण भारत संघ’ का गठन किया।

एक बार जब वह अलवर के एक गाँव में भ्रमण कर रहे थे, तो एक वृद्ध ने इन्हें चुनौती देते हुए कहा कि ” ग्राम विकास करना है, तो बातें छोड़कर गेंती और फावड़ा पकड़ो। गाँव की सहायता करनी है, तो गाँव में पानी लाओ।”

राजेन्द्र सिंह ने यह चुनौती स्वीकार कर ली। उन्होंने फावड़ा उठाया और काम में जुट गये। धीरे-धीरे उनके पीछे युवकों की कतार लग गयी। उन्होंने वर्षा का जल रोकने के लिए 4,500 जोहड़ बनाये। इससे अलवर और उसके पास के सात जिलों में जलस्तर 60 से 90 फुट तक उठ गया। परिणाम यह हुआ कि उस क्षेत्र की अरवरी, भगाणी, सरसा, जहाजवाली और रूपारेल जैसी छोटी-बड़ी कई नदियाँ पुनर्जीवित हो गयीं।

अब तो ‘तरुण भारत संघ’ की चर्चा सब ओर होने लगी। लगन, परिश्रम और कुछ करने की प्रबल इच्छा के साथ-साथ देशज ज्ञान के प्रति राजेन्द्र सिंह की निष्ठा ने रंग दिखाया। अकाल के कारण पलायन कर गये ग्रामीण वापस आ गये और क्षेत्र की सूखी धरती फिर से लहलहा उठी।

अन्न के साथ ही वनौषधियों, फलों एवं सब्जियों की उपज से ग्रामवासियों की आर्थिक दशा सुधरने लगी। कुपोषण, बेरोजगारी और पर्यावरण की समस्या कम हुई। मानव ही नहीं, पशुओं का स्वास्थ्य भी अच्छा होने लगा। तत्कालीन राष्ट्रपति श्री नारायणन भी इस चमत्कार को देखने आये।

इस अद्भुत सफलता का सुखद पक्ष यह है कि पानी संरक्षण के लिए आधुनिक संयन्त्रों के बदले परम्परागत विधियों का ही सहारा लिया गया। ये पद्धतियाँ सस्ती हैं और इनके कोई दुष्परिणाम नहीं हैं। आज राजेन्द्र सिंह के काम को देखने देश-विदेश के हजारों लोग आते हैं। उन्हें प्रतिष्ठित ‘रेमन मैगसेसे पुरस्कार’ के अतिरिक्त सैकड़ों मान-सम्मान मिले हैं।

2001 में, रैमन मैगसेसे पुरस्कार, सामुदायिक नेतृत्व के लिए वाटर-हार्वेस्टिंग और जल प्रबंधन में समुदाय-आधारित प्रयासों में अग्रणी काम के लिए दिया गया।

2005 में, ग्रामीण विकास के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग के लिए जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

2008 में, द गार्जियन ने उन्हें “50 लोगों की सूची में शामिल किया, जो धरती को बचा सकते हैं”।

2015 में, उन्होंने स्टॉकहोम वॉटर प्राइज़ जीता, यह पुरस्कार “पानी के लिए नोबेल पुरस्कार” के रूप में जाना जाता है।

2016 में, उन्हें यूके स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जैनोलॉजी द्वारा अहिंसा पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

लेकिन राजेन्द्र सिंह को यह सफलता आसानी से नहीं मिली। शासन, प्रशासन, राजनेताओं तथा भूमाफियों ने उनके काम में हर तरह की बाधा डाली। उन पर हमले किये और सैकड़ों मुकदमों में उन्हें फँसाया; पर कार्यकर्ताओं के दृढ़ निश्चय के आगे सब बाधाएँ धराशायी हो गयीं। राजेन्द्र सिंह इन दिनों पूरे देश में घूमकर जल संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक कर रहे हैं।

बात करें उनके आरंभिक दिनों की तो, कुल तेईस हजार रुपए की पूँजी लेकर वे अपने कार्यक्षेत्र में उतर गए। उन्होंने ठान लिया कि वह पानी की समस्या का कुछ हल निकालेंगे। आठ हजार रुपये बैंक में डालकर शेष पैसा उनके हाथ में इस काम के लिए था।


राजेन्द्र सिंह के साथ चार और साथी आ जुटे थे, यह थे नरेन्द्र, सतेन्द्र, केदार तथा हनुमान। इन पाँचों लोगों ने तरुण भारत संघ के नाम से एक संस्था बनाई जिसे एक गैर-सरकारी संगठन (एन.जी.ओ) का रूप दिया। दरअसल यह संस्था 1975 में जयपुर यूनिवर्सिटी द्वारा बनाई गई थी, लेकिन सो गई थी। राजेन्द्र सिंह ने उसी को जिन्दा किया और अपना लिया। इस तरह तरुण भारत संघ (TBS) उनकी संस्था हो गई।

डॉ राजेन्द्र सिंह के जीवन यात्रा को रेखांकित करती हुई पुस्तक जोहड़ नाम से है। जल पुरूष के संघर्षमय जीवन गाथा को चम्बल सिने प्रोडक्शन द्वारा सामाजिक मुद्दों पर सार्थक सिनेमा बनाने वाले युवा फ़िल्म निर्माता निर्देशक रवीन्द्र चौहान “भाईसाहब जलपुरुष की कहानी” नाम से वृत्तचित्र (डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म) बना रहे है।

इस धरती के अलग – अलग हिस्सों पर कई जीवन्त किरदार अपना स्वरुप विस्तार करने में लगे हुए हैं, हमें उन तक पहुंच कर अपने ग्रह को बचाने में योगदान देना ही चाहिए। यह सिर्फ़ कथन नहीं है कि..”जल ही जीवन है”….

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