पतझड़

पतझड़
पतझड़

बिखरी हुई पत्तियों ने भी पूरा जीवन देखा है अपना। वृक्ष की शाखाओं से लिपटी हुई उसकी बारीक रेखाओं में पनपना हो, या फिर बीज के फल तक की यात्रा में, उन बीजों और फलों से लिपटे रहना। अपने ऊपर रेंगते हुए उन कीटों का जीवन या फिर उन्हीं का भोजन बन जाना भी… प्रकृति से लिपटे हुए , उसके यथार्थ के हर हिस्से में जीवन पनप रहा है, निखर रहा है और समय के साथ बिखर रहा है। बिखरना एक सुंदर प्रक्रिया है, और होना ही है…बिखराव से ठहराव तक की एक यात्रा, जीवन के कई छोर घेरती हुई अपने आपको स्थापित करना चाहती है।

प्रकृति के प्रत्येक स्पर्श में एक विचार रमा हुआ है, सृजन से लेकर उसके समाप्त हो जाने तक का भी। सुंदर पत्तियों से ढंके हुए वृक्ष भी मौसम के चक्रों में लिपटकर , लगभग एक निश्चित समय में जाकर अपनी पत्तियों को अलग कर ही देते हैं। बसंत का आगमन बिना पतझड़ के कैसे हो सकता है..!

“लेकिन सच तो यह है कि प्रकृति सर्वदा यह सिखाती है कि स्थापित होने जैसा कुछ नहीं है..कुछ भी नहीं..!”

शिविका 🌿

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