पीढ़ियों की बागडोर

पीढ़ियों की बागडोर

एक ही विषय रह गया है, जिससे आंतरिक रुप से मैं ऊब नहीं सकी आजतक ; और वो है निरंतर जानने और मंथन का विषय। एक खोजी से आप यह नहीं कह सकते कि, बस बहुत हुआ रुक जाओ। यहां तक कि समाज के बंधन, जो आपकी आंतरिक स्वतंत्रता में बाधक बनते हैं। वो व्यक्ति उन सबको तोड़ता हुआ चलता है। ऊब जाना स्वाभाविक है उसका, जैसे मैं यह हमेशा कहती हूं, चिंता उनको अधिक है जो यहां बसने का विचार लेकर जी रहे हैं। हालांकि क्षणिक भान उनको भी होता है कि यह विचार ही तो है।

लोग कहते हैं कि वो अपनी पीढियों के लिए कार्य कर रहे हैं, पर ध्यान से देखा जाए तो पीढियां अपनी नियति और नीयत के साथ आती हैं। उनकी आंतरिक ऊर्जा अलग तरह से कार्य करती हैं। वो देखते – देखते नष्ट हो जाती हैं, या अपना असल रूप ही खो देती है।  सबसे पहले इस विचार से मुक्त होना चाहिए कि कोई आपके मन में झांककर आपको देख पाएगा। ऐसा होना दुर्लभ है।

“हम भीड़ में इसलिए रहते हैं कि, एकांत के प्रश्न ही सामने ना आएं। भीड़ हमें अलग – अलग विचारों से घेरे रखती है, जबकि एकांत हमारे ही विचारों का बिंब बनाकर सामने लाने लगता है। जैसे डर, निराशा या ऐसा कोई बोध जिसकी हम लगातार अनदेखी कर रहे हों..”

शिविका 🌿

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