प्रकृति का मन

प्रकृति का मन

कितना कुछ रखा है एक सोच के अंदर..! खेत-खलिहान, तो कुछ आँगन के किस्से ।कभी गांव उमड़ आता है तो कभी शहर , परिधानों के भी अपने अलग महत्व हैं।

“प्रकृति” नित नए संकट झेल रही है
अब भी हम सोच रहे हैं, कि सिर्फ़ हम हैं ?

हमारे अस्तित्व की धुरी स्वार्थ तक रह गई है।हमें बहुत बड़ा बनना है..! इतना कि, हम दबा सके सबको
अपनी चाकरी के लिए…?

इतने विकारी की अपने आगे
हर बीज को कुचल देते हैं…
इतना अधिक , कि वो पनप ही ना सके…
क्योंकि, डर होता है कि अगर वो पनप कर
फलदार वृक्ष बन गया तो…!
हमारे सामने आ बैठेगा
या हमसे ऊँचा दिखने लगेगा…

सामर्थ्य की उचित परीक्षा में बैठे बिना ,हम स्वयं को सर्वोच्च सिध्द कर देते हैं ;और फिर शुरू होता है अहम का खेल।
जिसमें हम अपना कद और छोटा करते जाते हैं…फिर कुछ समय बाद मिलते हैं , मिट्टी में मिल चुकी राख़ की तरह या ज़मीन के अंदर मृत पड़ी काया की तरह , पर फिर भी दम्भ नहीं जाता।

उठो और ऊँचा उठो
कि, झुका सको अपनी “नीयत”
और लिख सको अपनी नीयति
एक काली दीवार के अंदर
जो बस तुम्हारे विचार के दर्पण पर ही सटीक है..
इसके अलावा यह प्रकृति धिक्कारेगी तुम्हें
तुमने चीरा है इसको
हर पल अपनी भूख मिटाने के लिए
तुम चीरते हो ह्रदय भी
अपनी दौड़ तक भागने के लिए
तुम नश्वर हो
ईश्वर नहीं…!
कुछ नहीं हो तुम…

तुम प्रकृति के अनमोल तत्व कैसे समझोगे?
जाओ! जियो जैसे जी रहे हो घुटन में
एक दिन तुम्हारी घुटन को विराम मिलेगा
पर उस दिन तुम नर से.. कंकाल तक की यात्रा पर निकल चुके होगे…

शिविका🌿

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