सन्त गाडगे जी महाराज

समानता की परिकल्पना

समानता की परिकल्पना – समाज की पृष्ठभूमि पर समानता नहीं है, या कहूं हो ही नहीं सकती। सब समान होना एक कल्पना में गढ़ी गई बात है। इसकी वास्तविकता यही है कि एक ही परिवार में चार लोग, चार दिशाओं को जाते दिखते हैं।

समानता की परिकल्पना

एक ओर वे लोग , जो अपने जीवन को निरंतर किसी दिशा में मोड़ने का प्रयास करते रहते हैं। दूसरी ओर वे लोग जो अपने जीवन को स्थिर करके, अन्य व्यक्तियों के जीवन को दिशा देने का कार्य करते हैं। हालांकि, जीवन निर्वाह बहुत बड़ा प्रश्न होता है। सबसे अधिक व्यस्तता इसी विषय को लेकर देखी जाती है कि जीवन में कैसे अधिक से अधिक साधनों की प्राप्ति की जा सके।

असमानता की जड़ों में, ऊपरी शाखाओं पर विद्रोह लिखे होते हैं। मैं इसे जड़ इसलिए कह रही हूं, क्योंकि यह कई वर्षों के सिंचित विचार का परिणाम है। जब भी किसी संवेदनशील मन का इससे सामना होता है, तो उन्हीं विरोध करती शाखाओं पर लगे फलों से,  परिर्वतन के बीजों का निर्माण होता है।

सन्त गाडगे जी महाराज कौन हैं ?

23 फरवरी 1876 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले के अंजन गांव, सूरजी तालुका , शेड गांव में एक धोबी परिवार में देवीदास डेबुजी जानोरकर का जन्म हुआ , जो बाद में सन्त गाडगे के नाम से विख्यात हुए। उनके पिता का नाम झिंगराजी जनोरकर एवं माता का नाम सुखीवाई था।

समानता की परिकल्पना

सामाजिक असमानता के फैले हुए विष ने, जिस तरह से लोगों की चेतना को जकड़ा है, उसके खिलाफ़ हमेशा से आवाज़ उठाई गई है। इसके लिए हर स्तर पर कार्य किया गया है। संत गाडगे जी उसी सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा रहे और अपना सारा जीवन स्वच्छ विचारों, समानता की परिकल्पना के विस्तार में समर्पित कर दिया।

एक दिन की बात है, जब वो फसल पर बैठने वाले पक्षियों को वहां से भगा रहे होते हैं, तो पास से निकलने वाला एक साधू यह देखकर उनसे प्रश्न करता है कि, क्या वो खेत के मालिक हैं..?

साधू के इस प्रश्न से अचानक उनको बोध की स्मृति आती है। वह क्या है, कौन है…..जगत क्या है… समाज क्या है ? और फिर, वो घर छोड़ देते हैं, निकल जाते हैं, इन सब प्रश्नों के उत्तर जानने। वह पैदल यात्रा करते हैं । एक गाँव फिर, दूसरा गाँव, तीसरा गाँव…चौथा,पांचवा और ऐसे ही निरंतर चलते रहते हैं। इन यात्राओं के अंत में , उनके हाथ में जो चीज़ रह जाती है, वो है झाड़ू।

उनकी खोज पूरी होती है-झाड़ू से। उन्हें लगता है कि इस समय किसी चीज़ की सबसे अधिक ज़रूरत है तो वो है सफ़ाई की, लोगों की, उनके घर-परिवार की। उनके दिमाग़ की, अंदर की और बाहर की।

सन्त गाडगे जी के विचार

पैरों में टूटी चप्पल, शरीर पर फटे हुए चिथड़े लपेट कर और सिर पर मिट्टी का कटोरा लेकर, गांव- गांव पैदल यात्रा करके लोगों को जागरूक करते रहे।

वो शिक्षा का पप्रचार बढ़ – चढ़कर करते थे, उनका कहना था कि , “अगर पैसों की तंगी हो, तो खाने के बर्तन बेच दो लेकिन अपने बच्चों को ज़रूर पढ़ाओ।”

वो कहते कि , “सुगंध देने वाले फूलों को पात्र में रखकर भगवान की पत्थर की मूर्ति पर अर्पित करने की बजाय, चारों ओर बसे हुए लोगों की सेवा के लिए अपना खून खपाओ। भूखे लोगों को रोटी खिलाओगे, तो ही तुम्हारा जन्म सार्थक होगा। पूजा के उन फूलों से तो मेरा झाड़ू ही श्रेष्ठ है..।”

स्वच्छता को उन्होंने अपने प्रमुख विचारों में रखा, गांव की नालियां साफ़ करते और लोगों को कहते कि अब आपका गांव स्वच्छ है। सफाई करने के बदले लोग उन्हें पैसे देते थे और इनसे मिलने वाले पैसों को उन्होंने सामाजिक विकास कार्य में लगाया।

आश्चर्य नहीं कि अपने सारे जीवन में अनेक धर्मशालाएं, छात्रावास और अनेक गौशालाएं बनवाने के बाद भी इन्होंने अपने लिए एक कुटिया तक नहीं बनवाई। धर्मशालाओं के बरामदे या आसपास के किसी वृक्ष के नीचे ही अपना सारा जीवन बिता दिया।

वे अपने हाथ में झाड़ू लेकर चलते थे और जहां भी गंदगी देखते साफ़ करने लगते। महाराष्ट्र के भिन्न-भिन्न भागों में उन्हें, मिट्टी के बर्तन वाले संत गाडगे जी बाबा, तो कहीं चीखड़े वाले बाबा के नाम से पुकारा जाता था। उनका वास्तविक नाम आज भी बहुत कम लोगों को ज्ञात है।

वो अपने अनुयायियों से कहते कि , “मेरी मृत्यु जहां हो जाए, वहीं मेरा संस्कार कर देना। न कोई मूर्ति बनाना, न समाधि, न ही मठ या मंदिर। लोग मेरे जीवन और कार्यों के लिए मुझे याद रखें, यही मेरी उपलब्धि होगी।”

गाडगे महाराज एक घुमंतू भिक्षुक थे। अपने कीर्तन के दौरान वह लोगों को अंध विश्वासों और कर्मकांडों के विरुद्ध शिक्षित करते थे और संत कबीर के दोहों का बढ़- चढ़कर प्रयोग करते थे। उन्होंने लोगों को धार्मिक अनुष्ठानों  में पशु बलि न करने के लिए प्रोत्साहित किया।उनका कहना था कि साधु चलता भला, गंगा बहती भली।सात दिन का नाम सप्ताह और आखिरी दिन वो भंडारा करने के लिए कहते थे।

वो कहते कि –
कबीर कहे कमला को, दो बाता लिख लें।
कर साहेब की बंदगी और भूखे को कुछ दें।।

वो अपने साथ मिट्टी के मटके जैसा एक पात्र रखते थे। महाराष्ट्र में मटके के टुकड़े को ‘ गाडगा’ कहते हैं। इसी कारण कुछ लोग उन्हें गाडगे महाराज कहने लगे और बाद में वे गाडगे के नाम से ही प्रसिद्ध हो गये।

अपने कार्य को विस्तृत रूप देने के लिए, एक समय बाद उन्होंने अपने परिवार (पत्नी कुंता बाई और चार बच्चों) को त्याग दिया। गाडगे जी महाराज के आध्यात्मिक गुरु मेहर बाबा थे। गाडगे महाराज, बाबा साहेब अम्बेडकर के सामाजिक गुरू भी माने जाते हैं।

20 दिसंबर, 1956 को गाडगे महाराज ने अमरावती के पास पेढ़ी नदी के तट पर अंतिम सांसें लीं।

गाडगे बाबा स्वच्छता अभियान

भारत सरकार ने गाडगे महाराज के सम्मान में 2000-01 में ‘संत गाडगेबाबा स्वच्छता अभियान’ शुरू किया है। इस कार्यक्रम के माध्यम से, गांवों को स्वच्छ बनाए रखने वाले ग्रामीणों को पुरस्कार प्रदान किया जाता है।

शिविका 🌿

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