“संवाद की उपस्थिति” को लेकर मेरा व्यक्तिगत मानना यह है कि, जो बात कही जा रही है और जिस तरह से, जिस आधार पर रखकर कही जा रही है, वो अगर उसी रूप में प्रसारित होकर श्रोता के पास नहीं पहुंच सकी, तो वो एक सफल संवाद कैसे हो सकता है..?
“संवाद की उपस्थिति” के बारे में अक्सर नहीं सोचा जाता… न ही इसके संबंध में कोई विचार उतना प्रबल है। कई तरह से इसकी व्याख्याएं मिलती हैं। जैसे इसके लिए दो लोगों की भूमिका आवश्यक है। अधिकांशत: यह माना जाता है कि दो या उससे अधिक व्यक्तियों के बीच किसी भी तरह की भाषा का आदान- प्रदान हो रहा है, तो उसे संवाद कहा जाता है।
यही वह बात है जो “संवाद की उपस्थिति” को लेकर एक प्रश्नचिह्न लगाती है..! गूढ़तम संवादों का आधार तो पूरी तरह भिन्न होता है, कई बार वो एक ही छोर से आता हुआ, भाषा प्रयोग की तरह दिखाई देता है। जिसमें वक्ता अपनी बात रखने का पूरा प्रयास करता है, लेकिन श्रोता न उस संवाद का संदर्भ ज्ञात करने की इच्छा रखता है और न ही संवाद के प्रति अपनी भागीदारी की, तो उसे संवाद कैसे मान लिया जाए..?
क्या केवल भाषा की गूँथी हुए वाक्यों को किसी के सामने कह देना भर ही संवाद है..?
हां परिभाषा के आधार पर तो यह संवाद अवश्य बनाती है।
किन्तु आंतरिक आधार पर देखा जाए तो उसमें संवाद हुआ अवश्य है, लेकिन उसकी उपस्थिति नहीं है। यह केवल कोरी कल्पना जैसा है। जीवन में व्यक्तियों के पास इतने उदाहरण हैं, जिसमें वो स्वयं जानते हैं कि “संवाद की उपस्थिति” न के बराबर रही।
“जीवन की भाग दौड़ के मध्य सबसे उचित संवाद कभी हुआ है, तो वो स्व संवाद है…”
शिविका🌿