संत और क़ैदी
(एक मंद रौशनी वाली जेल की कोठरी में , साधारण वस्त्र पहने संत बैठे हैं और कई क़ैदी उनके सामने बैठे हैं । संत ने अभियान चलाया है कि कारावास में जाकर कैदियों से जीवन के कई विषयों पर बात की जाए। कैदियों के चेहरे पर थकान और निराशा साफ़ झलक रही थी। वहां की हवा में नमी और पछतावे की गंध आ रही थी।
संत : (धीरे से)
सब कहते हैं कि मैं एक संत हूँ, लेकिन मुझे हमारे बीच कोई अंतर नहीं दिखता।
हम सब विशेष परिस्थितियों से बंधे हैं…इस कठोर दुनिया में अर्थ की तलाश कर रहे हैं।
पहला क़ैदी : (कड़वे स्वर में)
आप अलग नहीं हैं?
आप स्वतंत्र हैं, है न?
आप जब चाहें उस दरवाज़े से बाहर निकल सकते हैं।
संत:
स्वतंत्रता, शारीरिक बेड़ियों के बारे में नहीं होती है।
मैं भी क़ैद रहा हूँ – संदेह, भय और अपनी आत्मा के भार से…
हम सभी बोझ ढोते हैं..!
दूसरा क़ैदी: (आगे झुकते हुए)
आप दुख के बारे में क्या जानते हैं?
कभी भूखे रहे हैं..?
कभी अन्याय का दंश झेला?
आप तो एक पवित्र व्यक्ति हैं , इस जगह की गंदगी से अछूते…
संत: (मुस्कुराते हुए)
दु:ख..?
यह दीवारों से परे है….
हम सभी अपनी इच्छाओं, अपनी आसक्तियों के क़ैदी हैं।
पहला क़ैदी: (चीख कर बोलता है)
मैंने एक आदमी को मार डाला…
बहुत से लोग, मुझे राक्षस कहते हैं….
मैंने सब कुछ खो दिया है। मेरा परिवार, मेरा सम्मान।
आख़िर, क्या बचा है अब?
संत: (झुकते हुए)
सब कुछ….।
तुम्हारे पास अभी भी साँस है, तुम्हारी चेतना की ध्वनि है।
जिसके भीतर परिवर्तन का बीज छिपा है।
अपराध बोध छोड़ो, मुक्ति कोई दूर का किनारा नहीं है – यह एक ऐसा विकल्प है , जिसका चुनाव हमारे पास ही है।
तीसरा क़ैदी:
तुम हमसे क्या चाहते हो?
संत: (हाथ बढ़ाते हुए)
मैं तुम्हें याद दिलाने आया हूं कि तुम्हारी आत्मा मुक्ति से परे नहीं है..!
हम एक यात्रा पर ही तो हैं – रास्ते में आए पड़ावों को पार करते हुए , निरंतर चलते रहना ही जीवन है।
तीसरा क़ैदी:
“क्या तुमने कभी सोचा है कि इसे ‘कारावास’ क्यों कहते हैं, जबकि यह अंधेरे के समुद्र में डूबने जैसा लगता है?”
महिला क़ैदी:
हाँ, ऐसा लगता है जैसे हमें बंद कर देते हैं और चाबी फेंक देते हैं।
हमारे अपने पागलपन की टिक-टिक के अलावा कुछ भी नहीं है यहां…
संत:
आन्तरिक बेचैनी से बहुत सी भ्रमित आकृतियां बन जाती हैं, लेकिन वो सच्ची नहीं होती…
पहला क़ैदी:
किए गए अपराधों की यादें?
हमारे पछतावे, जो कोई नहीं सुनेगा…!
या अपनों के चेहरे , जिन्हें हम कभी नहीं देख पाएंगे?
यह सब सच नहीं है तो और क्या है..?
दूसरा क़ैदी:
मुझे अपनी बेटी की याद आती है…
वह मेरे बिना ही बड़ी हो रही है।
मैं अक्सर कल्पना करता हूँ कि वह सूरज की रौशनी में नाच रही होगी….
संत:
हम सभी ब्रह्मांड के क़ैदी हैं…
वास्तविकता का बोध ही समाधान है।
पहली सीढ़ी पर अपराध बोध है , तो दूसरी पर पश्चाताप…
“समय एक नदी है , जिसकी धाराओं पर हम बहते हैं। हम मुक्ति चाहते हैं – टूटे हुए धागों को जोड़ना भी चाहते हैं। लेकिन याद रखना होगा कि , खोया हुआ समय खोजने का मतलब, अतीत को बदलना नहीं है; बल्कि इसे ठीक से समझकर आगे बढ़ना ही जीवन है।”
(संत की बात सुनकर सभी क़ैदी शान्ति से बैठे हुए हैं, उन्हें ऐसा लग रहा है जैसे बहुत दिन बाद किसी ने सच में उनसे बातें की हों। बहुत समय बाद उन्हें अपना महत्त्वपूर्ण होना अनुभव हुआ है)
शिविका 🌿