श्मशान के अघोरी
श्मशान में अघोरी थे, किसी छोर पर…दूसरी ओर किसी की मृत देह जल रही थी, वो भी रात्रि के मध्य प्रहर में। कुछ सजीव लोगों की भीड़ थी, जो एक निर्जीव लाई थी। अघोरी दूर से ही सब देख रहे थे। मध्यरात्रि का वो समय, उनकी साधना का था। लोग तीव्र ध्वनि से चिल्ला रहे थे..!
लोगों की भीड़ –
ये जल्दी जलता क्यूँ नहीं..?
कुछ लोग ठहाकों में लगे थे , तो कुछ जल्दी – जल्दी बातों की चिंगारियां उड़ाने में। पर यह स्वाभाविक था, कि वो लाश किसी ऐसे व्यक्ति की थी , जो उनका हिस्सा नहीं था..!
अघोरियों के मन में प्रश्न उठा..!
ये भीड़ किसे जला देना चाहती है?
कौन है वो ? जो ऐसे पड़ा है, अग्नि के आलिंगन में..?
अघोरी क्रोध की ज्वाला लिए…उस ओर बढ़ रहे थे।अघोरियों को आता देख , भीड़ घबरा गई।
तभी उनमें से प्रमुख अघोरी ने चिल्लाकर क्रोध में पूछा –
अघोरी –
यह किसे जलाने आए हो मध्यरात्रि में..?
तुम मूर्खों को यह ज्ञात नहीं, कि रात्रि में दाह संस्कार नहीं किया जाता..!
भीड़ में से एक व्यक्ति –
हमें एक लावारिस लाश मिली थी, तो सोचा कि इसका दाह संस्कार कर देते हैं।
अघोरी –
तुम ख़ुद लावारिस पड़े हुए हो दुनिया में..! तुम क्या किसी का दाह संस्कार करोगे…?
दूसरा व्यक्ति –
हम सच कह रहे हैं..
यह व्यक्ति हमें यूहीं रास्ते पर पड़ा मिला ..!
हम सारे दोस्त, जंगल घूमने आए थे, फिर रात हो गई तो सोचा , आज यहीं रुक जाना चाहिए..।
अघोरी –
जंगल की एक अपनी शान्ति होती है, एक अपना वातावरण होता है। कहीं भी झुंड बनाकर चल देना और अपनी चरम मूर्खता के प्रदर्शन में डूबे रहना.. तुम लोग बाहर क्यों नहीं आते इस ढोंग से..?
भीड़ में से एक व्यक्ति –
शरीर पर भभूत लगाकर घूमना और जटाएं बना लेना..यह ढोंग नहीं..?
तुम कैसे सिद्ध कर सकते हो, कि यह सब करके तुम महाज्ञानी हो गए..?
अघोरी –
(हंसते हुए कहता है)
प्रश्न बहुत सुंदर किया है तुमने…
यह उचित है, कि तन पर राख लपेट लेने से और सिर पर जटाएं लेकर चलने से, कोई महाज्ञानी नहीं हो जाता..
हम जिसे अपना गुरू मान लेते हैं, उसी छवि को मन में लेकर, अपने आपको उसी प्रतिबिंब में देखने का निरंतर प्रयास करते हैं।
किसी श्रेष्ठ बात के प्रदर्शन का , उसे धारण करने से कोई संबंध नहीं… संबंध चेतना के स्वर का है।
आप जिसे सर्वश्रेष्ठ मानते हो, अपना आचार – व्यवहार, उसी के अनुरूप बनाने का प्रयास करते हो।
एक विलासी के लिए , विलासिता ही उसका गुरु है…
एक विरक्त के लिए, विरक्ति ही गुरु है…
सबका चुनाव , समान नहीं है..
भीड़ का व्यक्ति –
इसमें भिन्नता क्या है..?
यह तो एक दम सामान्य बात हुई…
सब तो कुछ न कुछ चुनते ही हैं…हर कोई, किसी न किसी बात के पीछे है..?
अघोरी –
अंतर, होश का है…
अंतर, जागृति का है…
अंतर, चेतना के प्रवाह का है…
सृष्टि के आचार – व्यवहार, चेतना पर लागू नहीं होते…
वो अपने स्वरुप में आकर स्वयं ब्रह्म हो जाती है…
शरीर पर भभूत लपेटो या ना लपेटो…! आत्म जागृति किसी बात के अधीन नहीं…
व्यक्ति –
तो आप शिव को क्यों मानते हैं… फिर तो आप स्वयं शिव हैं..?
अघोरी –
जिसने शिव को जान लिया…
वो शिव हो गया…
हां मैं शिव हूं…
संसार रूपी ‘शव’ से , चेतना के अनंत में विलीन हो जाना ही, ‘ शिव ‘ हो जाना है…!
(भीड़ हंसती है, सिवाय उस व्यक्ति के जिसने प्रश्न किए..)
अघोरी उसी अंधेरे में कहीं चलते हुए ओझल हो जाते हैं…
भीड़ अपने ठहाकों में रमी हुई है। वो व्यक्ति जिसने प्रश्न के महत्व को समझा…
वो कहता जा रहा है…
“शव से , शिव की ओर…”
शिविका🌿