“यात्री”, यह शब्द सुनते ही सबसे पहले जो बात मन में आती है वो यह है कि, एक जगह से दूसरी जगह जाना हो रहा है। एक गतिशीलता का अनुभव होता है, जिसमें चलते रहने की बात है। यात्री वो है जो निरंतर चल रहा है, जब तक उसकी मंज़िल न आ जाए।
सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो सतह की हर गतिशील चीज़ एक यात्रा में ही तो है। जीवन को लेकर कितना कहा जाता रहा है कि यह एक यात्रा है, और इसके पूरे होने की बात मृत्यु के भी आगे जाती है।
यात्री बेहोश हो जाएं तो “यात्रा” किसी भी दिशा को चली जायेगी। ऊपरी हिस्से में तो यात्री पूरा सचेत होकर बैठा रहता है कि, उसकी होने वाली यात्रा में व्यवधान न आए, लेकिन उस यात्रा का क्या..! जो अनवरत चली आ रही है, चाहे यात्री उस पर ध्यान दे या न दे..?
आख़िर कौन सी यात्रा के यात्री अटके हुए हैं..?
यहां चेतना को केंद्र में रखकर यात्रा की बात सामने रखी जा रही है। अगर हम यात्री हैं, तो यात्रा भी अवश्य होगी। यह कहकर भाग जाना कि, जीवन एक यात्रा ही तो है। यह बात बहुत सहजता से कह दी जाती है, लेकिन हास्यास्पद यह है कि इस यात्रा के यात्री बेहोशी में चले जा रहे हैं। जो यह तक नहीं सोचते कि , इस यात्रा में पड़ाव हो सकते हैं, लेकिन बसने जैसा कुछ नहीं है।
“जाले में फंसे रहने में बड़ा आराम है और सुविधाओं की भरमार का भ्रम सिर चढ़ जाए, तो चेतना की पुकार सुनना ही कौन चाहता है..? अचेत हो चुके शरीर को ले जाकर जला/दफना दिया जाता है, फिर भी नहीं सोचते कि यात्रा का बसेरा कहां ओझल हो गया..! ऊपरी बसेरे बनाने वाले यात्री भी, जीवन की बेहोशी में पड़े कहीं सुलग कर राख हो रहे होते हैं। यह अलग बात है कि यात्री कृपया ध्यान दें, यह किसी स्टेशन पर होने वाली घोषणा सा ही है, लेकिन इसका गूढ़ अर्थ , बेहोशी के जालों को झकझोर सकता है..।”
शिविका🌿